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________________ 76 कातन्त्ररूपमाला मृदुनी / मृदूनि / पुनरपि / टादौ स्वरे परे भाषित-पुंस्कं पुंवद्वा इति विकल्पेन पुंवद्भाव: / शुचिवत् / मृदुना . 2 / मृदुभ्यां / मृदुभिः / इत्यादि / एवं पटु लघु गुरु प्रभृतयः / इत्युकारान्ता: / ऊकारान्तो नपुंसकलिङ्ग खलपूशब्दः / तस्य स्वरो ह्रस्वो नपुंसके इति ह्रस्वत्वे सेनानीशब्दवत् / खलपु / खलपुनी। खलपूनि / पुनरपि / टादौ भाषितपुंस्कमिति विकल्पेन यत्र पुंवद्रावस्तत्र सेनानीशब्दवत् / खलपुना, खलप्वा। खलपूभ्यां / खलपूभिः / इत्यादि / एवं सरलू / काण्डलू प्रभृतयः / इत्यूकारान्ता। ऋकारान्तो नपुंसकलिङ्गः कर्तृशब्दः / तस्य प्रथमाद्वितीययोर्वारिशब्दवत् / कर्तृ / कर्तृणी / कर्तृणि / पुनरपि / टादौ पुंवद्भावात्पुल्लिङ्ग .. द्वि+औ 'त्यदादीनाम् विभक्तौ' इस १७२वें सूत्र से 'अ' प्रत्यय होकर व औरीम्' से ई होकर संधि होकर द्वे बना। द्वे / द्वे / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम् / द्वयोः / द्वयोः / त्रि शब्द जस् शस् में वारि शब्दवत् है। यथा—त्रि+ जस्, त्रि+शंस् 'जश्शसो: शि:' इस सूत्र से 'शि' आदेश होकर 'धुट् स्वराद् घुटि नुः' इस २४०वें सूत्र से नु का आगम ‘इन् हन् पूषार्यम्णां शौच' इस २४७वें सूत्र से दीर्घ न् को ण् होकर त्रीणि बना। त्रीणि / त्रीणि। त्रिभिः / त्रिभ्य: / त्रिभ्य: / त्रयाणाम् / त्रिषु / इस प्रकार से इकारांत नपुंसक लिंग हुये। अब ईकारांत नपुंसक लिंग में ग्रामणी शब्द हैग्रामणी+सि 'स्वरो ह्रस्वो नपुंसके' इस २४४वें सूत्र से ह्रस्व होकर ग्रामणि + सि है। . 'नपुंसकात्स्यमोलोपो न च तदुक्तं' इस २४५वें सूत्र से ह्रस्व होकर सि अम् का लोप होकर और कुछ कार्य नहीं होने से 'ग्रामणि' शब्द बना। टा आदि विभक्ति के आने पर 'टादौ भाषितपुंस्कंपुंवद्वा' इस २५२वें सूत्र से विकल्प से पुंवत् होने से एक बार वारिवत् एक बार 'अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद्य्वौ' १९०वें सूत्र से ई को य् होकर रूप चलेंगे। आम् विभक्ति के आने पर 'आमि च नुः' से नु का आगम 'दीर्घमामिसनौ' से दीर्घ होकर 'ग्रामणीनाम्' पुंवद् भाव में ग्रामण्याम् बना। ग्रामणि+ङि में ग्रामणिनि पुल्लिंग में 'नियोडिराम्' १९१वें सूत्र से आम् होकर ग्रामण्याम् बना। संबोधन में 'नाम्यंतचतुरां वा' से हे ग्रामणि, हे ग्रामणे ! बना। ग्रामणि ग्रामणिनी ग्रामणीनि हे ग्रामणि !, हे ग्रामणे ! हे ग्रामणिनी ! हे ग्रामणीनि ! ग्रामणि ग्रामणिनी ग्रामणीनि ग्रामणिना, ग्रामण्या ग्रामणिभ्याम् ग्रामणिभिः ग्रामणिने, ग्रामण्ये ग्रामणिभ्याम् ग्रामणिभ्यः ग्रामणिनः, ग्रामण्यः ग्रामणिभ्याम् ग्रामणिभ्यः ग्रामणिनः, ग्रामण्यः ग्रामणिनोः ग्रामण्योः ग्रामणीनाम्, ग्रामण्याम् ग्रामणिनि, ग्रामण्याम् ग्रामणिनोः, ग्रामण्योः ग्रामणिषु इसी प्रकार से अग्रणी, सेनानी शब्द के रूप चलेंगे। इस प्रकार ईकारांत नपुंसक लिंग शब्द हुये अब उकारांत नपुंसक लिंग वस्तु शब्द है वह वारि शब्द के समान चलता है। यह वस्तु टा आदि स्वर वाली विभक्तियों के आने पर 'आमि च नु:' से नु का आगम होकर 'दीर्घमामिसनौ' से दीर्घ होकर वस्तूनाम् बनता है। यथा
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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