________________ 27 उपाध्याययशोविजयविरचित परज्ञात अशुद्धई केवलोनई अशुद्धपणु होइ, जिम-रेवतीज्ञातकुष्मांडपाकि पणि स्वरूपथी नहीं इम कहितां परभावाश्रयण थयु, पणि द्रव्यपरिणति व्यवस्था न रहो, नहीं तो अशुद्धनई शुद्ध जाणतां भ्रांति थाई अनई, जो अनेषणायनइं ठामि स्याद्वादई शुद्धाशुद्धता विचारिई तो द्रव्यवधस्थानई पणि ते विचार किम नथी करता ? // 15 // श्रुतव्यवहारशुद्धनइ अनेषणीय कहिवं, ते श्रुतव्यवस्था (व्यवहार) आश्रीनइ, जिम'अयं साधुरुदयनो राजा' इहां राजत्व अगृहीतश्रामण्यावस्था अपेक्षीनई इम कोइ कहइ छई, तेहनइ श्रुताशुद्धथी भिन्न ज निषिद्ध आवई ते वोरइ-'इमं सावज्जं ति पण्णवेत्ता पडिसेवई' [ ] ए स्त्रनो विषय न लाभई // 16 // आभोगई जीवघातोपहित योग ते अशुभ, इम कहई छई तेहनइं "यद्यप्यसंयतानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां नाहऽत्मारम्भकत्वादिकं साक्षादस्ति तथाऽप्यविरतिं प्रतीत्य तदस्ति' [श. 1. उ. 1.] ए भगवतीवृत्तिनई वचननई अनुसारिं एकेन्द्रियादिक अशुभयोगमां किम घटई 1 ते मार्टि-अयतनाइ- ज अशुभयोग कहिवा // 17 // आरम्भिकी क्रिया प्रमादीनइ प्रमादी निरन्तर होइ इम कहइ छइं, ते जूठो, जे मार्टि "आरंभिया णं भंते ! किरिआ कस्स कज्जइ ! गोयमा अण्णयरस्साविं पमत्तसंजयस्स' एहवु पण्णवणा [22. क्रियापद]मध्ये कहिउँ छई। ___ "अन्यतस्यैकस्य कस्यचित्प्रमादे सति कायदुष्प्रयोगाभावतः पृथिव्यादेरुपमर्दसंभवात् [ ] इम वृत्तिव्याख्यान छइं // 18 // द्रव्यवधइ जे जिननइ प्राणातिपात कहइ छइ, ते द्रव्यपरिग्रहह परिग्रही किम न कहइ // 19 // अशक्य परिहार पणि आभोगमूल आभोगपूर्वक हिंसा साधुनइ न होइ, नदी उतरतां जलजीवनो आभोग नथी "दुविआ आउकाइया पण्णत्ता, सचित्ता य अचित्ता य' [ ] इत्यादि वचनथी न जलजीव संदेह छइं, ते मार्टि ते जूढु जे मार्टि-व्यवहारथी निश्चय ज छे अनि प्रवृत्ति ते व्यवहारइ ज छइ तथा जलमध्ये 'तसा वि पच्चकखया चेव' इत्यादिक शास्त्रइ कहिउं छह // 20 // अब्रह्मसेवइ जीवलक्षघातक पातकी न थाइ, एक कीडी जाणी हणइ तो पातकी थाइ तिहां जीवनो अनाभोग आभोग नियामक छइ इम कहह छइ ते जूलु जे मार्टि-तिहां प्रत्याख्यानभंगाभंग अथवा परिणामविशेष ज नियामक छइ // 21 // - बि. वि 3