________________ विचारविन्दु गहणीय पाप द्रव्यवधादिक ते प्रति ज मोहनीय कर्म हेतु, अत एव बारमि गुणठाणि संभावना रुढमृषावादादिक आश्रव होइं तो ना नहीं, तिहां केवल अनाभोगज हेतु छई, इम कहि इं तो मोह विना भावगत पाप अर्थथी आवई // 9 // भावाश्रवपरिणामई मोहोदय कारण छई द्रव्याश्रवयरिणामई मोहसत्ता कारण छइं, इम कोइ कहई छई, ते जूटूटुं. जे मार्टि इम तो द्रव्यकवलाहार प्रति मोहसत्ता कारण छई ए दिगंबर कल्पना करतां पणि कुण वारई // 10 // द्रव्यवध मोह जन्यज कहिई, तो द्रव्यपरिग्रहपरिणति पणि मोहजन्य होइ ते मार्टिधर्मोपकरणवंत केवलो मोही थयो जोईइ अनइ धर्मोंपकरणनई द्रव्यपरिग्रह धर्मपरिग्रहपणु अशास्त्रीय नथी, यतःतत्थ साहुणो मुच्छमगच्छं दुव्वओ परिग्गहो णो भागावओ। -दशवैकालिकचूर्णी // 7 [-148] // 11 // ___ एणि करि जेइम कहइ छई, केवलिना योग पराभिप्रायिं केवलज्ञानसहकृत ज जीवघातहेतु छई एटला जीव अमुकक्षेत्रइ मइ हणवा, इम केवलज्ञानइं जाणी ज केवली जीव हणई छई, इम करता हिंसाणुबंधीणामइ पहिलो रौद्रध्याननो पायो आवई ते वचन निराकरिउं जे मार्टि-वस्त्रधारणाभिप्राय पणि केवलीनई केवलज्ञानइं ज छई तेहथी संरक्षणानुबंधी नामइ चउथो पायो पणि रौद्रध्याननो इम वारिओ न जाइ, जो अभिलाष विना संरक्षणानुबंध न होइ तो प्रमाद विना हिंसाबुबंध पणि न होइ, ए सरखं समाधान जाणवू. // 12 // यज्जातीय द्रव्याश्रवइ संयतनइ अनाभोगइ प्रवृत्ति तज्जातीय द्रव्याश्रवज मोहजन्य धर्मोपकरणरूपद्रव्याश्रव, ते एहवो नथी ते माटि ते अपवादरूपन इम कहे जे मार्टि_ 'अपवादप्रतिषेवणं च संयतेष्वपि प्रमत्तस्यैव भवति' [ ] एहवु तुम्हारूं मत छई // 13 // ववहारो वि हु बलवं जं वंदेह केवली वि छउमत्थं / आहाकम्भं मुंजइ, सुअववहारं पमाणतो // 1 // ए वचनथी श्रुतव्यवहारशुद्ध अनेषणीय, ते एषणीयांतर न पणि अनेषणोय नहि, अन्यथा 'इमं सावज्जं त्ति पण्णवेत्ता(णो) पणिसेवित्ता हवइ' [ ] ए वचनविरोध थाइं इम कोइ कहई छई ते जूटुं, जे मार्टि-इम तो साधुनइ पणि अपवादि अनेषणीय हिंसादिक एषणीय __ अहिंसांतरादिक कहिवाई ते वारइ स्वरूपसावधता तेहनइ टलई // 14 // 1. छतमत्व पि वंदई भरिहा, इति पाठा० /