________________ उपाध्यायवशोषिजयविरचित केवलीना योगथी स्वरूपइ हिंसा न होइ तो'उलंधेज्ज वा पलंधेज वा' [ ] ए पन्नवणानुं वचन न मिले // 2 // केवलिनि वर्जनाभिप्राय नथी ते मार्टि जीवघात होइ, तो भावहिंसा थाई, इम कहई छइ. ते जूढु, जे मांहिं- "तथाविधसम्पातिमसत्त्वाकुलां भूमिमवलोक्य तत्परिहाराय जन्तुरक्षानिमित्तमुल्लङ्घनं प्रलचनं वा वा कुर्यात्' [ ] इम प्रज्ञापनावृत्ति मध्ये कहिउं छइ // 3 // तथाविध कर्मबंध नथी, ते मटि वर्जनाभिप्राय न होई, ते पणि जूढुं. जे माटि-स्वरूपि वर्जनीयनइं वर्जनीय ज केवली जाणइ अनेषणीयवत्. उक्तं च तत्थ णं रेवतीए गाहावइणीए मम अट्टाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खाया तेहिं णो अट्ठो'त्ति, भगवत्याम् [श. 15] // 4 // जे जीवरक्षायत्न रक्षानुकूल न दोठो तेहनो प्रयोग किम होइं इम न कहिवं, जे मार्टि व्यवहारसाधन पणि ज केविलियोगप्रयोग संभवई // 5 // इत्तो उ वीयरागो ण किंचिवि करेइ गरहणिज्जं तु, ___'गहेणीयं जीवघातादिकं' तवृत्तौ। -उपदेशपदे [731] ए वचनथी केवलिनई द्रव्यहिंसा न होइ इम कोइ कहइ छई ते जट, जे मार्टि गर्हणीय पाप ते भावरूपज होइ पणि द्रव्यरूप, नहीं अशक्यपरिहारनइं गर्हणोयपणुं श्यु ? // 6 // जो गर्दापरायण जन प्रत्यक्षता द्रव्यवध ज गर्हणीय कहिई, तो ताहरिं मति इग्यारमि गुणवाणिं मोहसत्ताजन्य द्रव्यवध गर्हणीय छइ तेहथी यथाख्यात चारित्र दुष्ट थाइ, अनि जो उत्सूत्र प्रवृत्ति विना तिहां दोष नहीं, मोहोदयसहित निबिद्ध सेवाइ ज उत्सूत्रप्रवृत्ति मानस्यो तो वीतरागनइ द्रव्यवध अदुष्ट थयो // 7 // अनाभोगज द्रव्यवधइ प्रतिसेवा न कहई, इग कोइ कहइ छई, ते पणि जुटुं जे मार्टि प्रतिसेवा मध्ये अनाभोग ज पणि संग्रहीइं छई; यदागमः दसविहा पडिसेवणा पण्णता, ते'• दुप्पप्पमायणाभोगे / आउरे आवतीति य संकिण्णे सहसक्कारे, भयप्यओसा य वीमंसा, भगवत्याम् / / 8 / / [श. 25. उ. 7] 1. 'उवक्खडिया' इति पाठांतरे १.तं बहा इति /