________________ - विचारविन्दः / पृथिव्यादि जीवनो अनाभोग ज होइ ते सिद्धनी परि साधुनह पणि तद्वधइ तथाविध दोष न हुओ जोइइ // 22 // कुंथूत्पत्तिमात्रइ संयमनुं दुराराधपणुं कहिउं यतनाहेतु आभोग दुर्लभ थाई ते माटि तिम नधुत्तारइ न कहिउं, ते माटि स्थावरना आभोग न होइ इम कोइ कहइ छइ ते जूटुं, जे माटि सूक्ष्मनी यतना कही छइ ते तेहना आभोग विना किम सम्भवइ, नधुत्तार आज्ञाशुद्धि ज अदुष्ट छैइ // 23 // जो स्थूल बसनो ज आभोग मानिइं तो तेहनी ज हिंसा एकांत दुष्ट थाइ, अनइ तिहां तो स्याद्वाद कहिओ छइ जे केइ मुहुमा पाणा, अदुवा संति महालया / सरिसं तहिं वेरंति असरिसती य णो वदे // 1 // -सूत्रकृतांगे / [श्र. 2. अ. 5] // 24 // एणि करी लौकिकघातकत्वव्यवहारविषयहिंसा महापाप ज, ए प्रलाप निराकरिओ, इम तो आपवादिक वचनइ पणि महापापपणुं थाई, शानिं तो तिहां अदुष्टता ज कही छइ ... गीयस्थो जयेणाए कडजोगी कारणंम्मि निदोसो / एगेसिं गीय कडो, अस्तऽदुट्ठो य (तु ?) जयणाए // 1 // -बृहत्कल्पे [सं. 4946] // 25 // जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होइ णिज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स // 1 // . -पिण्डनियुक्तौ / [67] इहां कोइ कुकल्पना करइ छइ जे जीवविराधना स्वरूपइ निर्जराहेतु होइ तो तप संयमनी परि ते घणी ज रुडी थाइ, ते मार्टि जीवघात परिणामजन्य विराधना निर्जरा प्रतिबंधक छई, यतनापरिणामइं ते स्वरूप टलइ छइ, तेणइ करी प्रतिबंधकामावथो निर्जरा कहीइ, पणि स्वरूपइ विराधना ते अशुद्ध ज छई, एवं कोइ कहइ छई, तेणि वृत्ति दीठी नथो, जे माटिं तिहा इम कहिई छई इदमुक्तं भवति-- "कृतयोगिनो गीतार्थस्य कारणवशेन यतनया अपवादपदमासेवमानस्य या विराधना सा सिद्धिफला भवतीति" ते मार्टि अनुबंधशुद्धिनिमित्तनो को परमार्थ नथी........ 1. जतणाए इति पाठांतरम् / 2. खुद्दगा इति पाठां० /