________________ विचारविन्दु वा: 1-4] इम कइि कहेइ छइ ते जूहूं. जे मार्टि-अनिष्ट पणि कारण विशेषि. इष्ट होइ, आधाककिनी परि ते वारि इष्टनी ज पशंसा हुइ // 25 // - एणि करी मिथ्यादृष्टिना दयादि गुण कारणविशेषि प्रशंसिइ पणि अनुमोदिइ नहीं, इम कोइक कहई छई ते ते उत्सूत्रभाषी जाणवो, जे मार्टि-अपुनर्वधकथी मांडीनइ चउदमा गुणठाणा ताई जे भावमात्र छई ते सर्व अनुमोदनीय कहिओ छई, यतः - ता एयम्मि पयत्तो ओहिणं वीयरागवयणम्मि / बहुमाणो कायवो धीरेहिं कयं पसंगणं // 1 // -उपदेशपदे [234] वीतरागागमप्रतिपादितेऽपुनर्बन्धकचेष्टाप्रभृत्ययोगिकेवलिपर्यवसाने, वृत्तौ // .. अन्यप्रथस्थ अकरणनियमादिक ते वीतरागागमनां छह, ते तो पूर्वि प्रमाणिउ छई // 26 // जो मोक्षार्थिनुं धर्मबुद्धि जे अनुष्ठानमात्र, ते अनुमोदवा योग्य कहिइ, तो स्वधर्मबुद्धि तीर्थान्तरीयकृतचैत्यध्वंसादिक पणि तिम होइ इम कोइक कहई छई ते उल्लंठ वचन जाणवू, जे मार्टि-जाति अनुमोदवा योग्य स्वरूप शुध्ध ज क्रियानई विषयशुद्धानो ते भावमात्र ज अनुमोघ छई, नहीं तो अपवादि हिंसा विहित छइ, तो जाति हिंसा किम नथी अनुमोदतो // 27 // परगृहीत दयादि वचन प्रशस्त छई, तो पणिं न प्रशंसिइं जिम परेगृहित जिनप्रतिमा पणि न वांदिई इम कोइ कहइ छइ, ते मिथ्या, जे मार्टि इहां मध्यस्थनई स्वपरदृष्टि छइ नहीं, बीजइ ज्ञान दर्शनग्रह टलै छ, यतः अधि इह मनाक्पुंस-स्तद्रागदर्शनग्रहो भवति / न भवत्यसौ द्वितीये चिन्तायोगात्कदाचिदपि // -षोडशके [ ] ... ते माटिं साधारण पणि लोकलोकोत्तर गुणप्रशंसा घटई, उक्तं च-'साधारणगुणप्रशंसा' धर्मबिन्दौ / [3-61] // 28 // पार्श्वस्थादिकनी कृतिकर्म प्रशंसाई जिम तद्गत दोषनी अनुमोदना होइ, तिम मिथ्यादृष्टिना दयादि गुण अनुमोदिई तो तद्गत दोषनी अनुमोदना थाई, इम कोइक कहई छई ते जूठे जे मार्टि मंदमिथ्यात्व ते अस्फुट दोष छइ जिम अविरतस म्यग्दृष्टिनो अविरति दोष. पार्श्वस्थादिक ते चारित्रियानई स्फुट दोष छई, तेणइं करी पार्श्वस्थादिकना गुण न अनुमोदई. मत 1. बोजी प्रतिमा 'कहई छई' ने बदले 'कहै छै' आवो पाठ छे अने आवा भाषा मेदो तो अनेक जग्याए न्तु तेथी अर्थ मेद थतो न होवाथी एवा पाठ मेदो नोध्या नथी, तेमज प्राकृत पाठोमा स्वर व्यज्जमना मामा पाठ मेदो नेमां कशो अर्थभेद न हतो तेवा पाठ मेदो पण प्रायः नोध्या नथी। 2. जे कारण विशेष प्रशंसिइ पणि भावमात्र छ, ते सर्व शास्त्रि अनुमोदनीक कहिनो छे. पांयं०