________________ उपाध्याययशोधिजयविरचित अभिनिवेशि "उदधाविव सर्वसिन्धवः" ए काव्यनो अर्थ खंडयो छई ते महामिथ्यात्व नाणवू // 21 // परप्रवादनी अवज्ञाई जिनशासननी अवज्ञा होइ, तो 'जीवो हन्तव्य' ए वचननी अवज्ञाइ पणि जिनशासननी अवज्ञा होइ, ए वचन पणि अपूर्व पंडितर्नु' जाणवू, जे माटिं अन्य सम्बन्धी शुभ वचननी अवज्ञाई जिनशासननी अवज्ञा कही छई, यतः न च द्वेषः तत्रापि वचनद्वेषः, कार्यों विषयस्तु यत्नतो मृग्यः / तस्यापि न सद्वचन, सर्व यत्प्रवचनादन्यत् // -षोडशके [16-13] // 22 // लौकिक मिथ्यात्वथी लोकोत्तरमिथ्यात्व ज भारे, ए एकांत न कहिवो, जे माटि मिन्नप्रथिक मिथ्यादृष्टिनई पणि कोटाकोटिथी अधिक बंध नथी. ए परिणामइ लोकोत्तर मिप्या दृष्टि हलुओ जणाई छई, यतः भिन्नग्रन्थेस्तृतीय तु, सम्यग्दृष्टेरतो हि न / पतितस्याप्यते बन्धो-ग्रन्थिमुल्लङ्घ्य देशितः // 1 // [266] सागरोपमकोटीनां, कोटयो मोहस्य सप्ततिः / अभिन्नग्रन्धौ बन्धोऽयं, यन्न त्वेकाऽपीतरस्य तु // 2 // तदत्र परिणामस्य, भेदकत्वं नियोगतः / बाह्यं त्वसदनुष्ठानं, प्रायस्तुल्यं द्वयोरपि // 3 // -इति योगबिन्दौ [268-69] // 23 // अनुमोदनथी प्रशंसा भिन्न, अनुमोदना चित्तोत्साहरूप प्रशंसा ते वचनमात्र, एहवं कोइक कहई छइ ते जूटुं, जे माटि 'प्रमोदप्रशंसादिलक्षणयाऽनुमत्या' एहवं पंचाशकवृत्ति कहिलं छह // 24 // सागरोपमकोटीनां कोटयो मोहस्य सप्ततिः / अभिन्नग्रन्थौ बन्धो य-न्नत्वेकाऽपतिस्य तु // 2 // तदत्र परिणामस्य, भेदकत्वं नियोगतः / / बाह्यं त्वसदुनुष्ठानं प्रायस्तुल्यं द्वयोरपि // 3 // -इति योगबिन्दौ [ ] // 23 // अनुमोदन इष्टनी ज होइ, अनइ प्रशंसा अनिष्टनी पणि होइ, तंजहा-तदुक्तं, 'चउहिं ठाणेहिं असंते गुणे दीवेज्जा, असष्भाक्यत्ति यं परच्छंदाणुवत्तियं कन्जोउ, कतपडिकतेतिवा' // ठाणांमे, .. वि. वि. 2