________________ विवादित पत्तेयमभावाओ, णिव्वाणं समुदियासु वि गजुत्तं / णाण-किरियासु वोत्तुं सिकतासमुदायतेल्ल व // 1 // [ श्लो. सं. 1163 ] वीसुं ण सव्वह च्चिय, सिकतातेल्लं व साहणाभावो / देसोवगारिया जा सा समवायंमि संपुण्णा // 2 // [ लो. सं. 1164 ] देशोपकारिपणुं तो मोक्ष प्रति अभव्यानुष्ठानई नथी तेमाटि ए भांगानो स्वामी अभव्य कहइ छइ तेहनइ वृत्तिविरोधइ महा उत्सूत्र जाणवू // 16 // बीजई भांगई संविग्नपाक्षिक अथवा श्रेणिकादिक अविरतसम्यग्दृष्टि आवइ जे मार्टि भगवतीवृत्ति मध्ये एहएं लिख्यु छइ जे– “प्राप्तस्य तस्यापालनादप्राप्तं वा" [ ] अन्इ कोइक अज्ञानी इम कहइ छई-जे लेई भाग्या विना विराधकपणु किम होई ते मार्टि 'अप्राप्तेर्वा' इस लिख्युं ते न मिलई, कल्पभाष्यादिक मांहि कही जे परिभाषासूत्रनीति ते जाणतो नथी चारित्रलाभई विराधकत्व इहां परिभाषित छई, पणि प्रसिद्ध नहिं तेणि करि कोइ दोष नहीं // 17 // अन्यदर्शनमध्ये अकरणनियमादिवर्णन 'धुणाक्षरन्यायिज होइ, इम कोइक कहई छई ते जूढुं-जे मार्टि धर्मबिन्दुवृत्तिमध्ये इम कहिउं छइं -- "यच्च यदृच्छाप्रणयनप्रवृत्तेषु तीर्थान्तरीयेषु रागादिमत्स्वपि घुणाक्षरोत्किरणव्यवहारेण क्वचित्किचिदविरुद्धमपि वचनमुपलभ्यते, मार्गानुसारिबुद्रो वा प्राणिनि कचित्तदपि जिनप्रणीतमेव तन्मूलत्वात्तस्येति" // 18 // जे इम कहई छई जे-अन्यदर्शनमध्ये शुभभाव ज न होई तो शुभवचन न हो इं ते मिथ्या, जे माटि मार्गानुसारिनइं मिथ्यात्वमंदताई शुभभाव पणि होइज यतः-- इत्तो अकरणणियमो अण्णेहिवि वण्णिओ ससत्यमि / सुहभावविसेसाओ ण चेवमेसो ण जुत्तोत्ति // 1 // --उपदेशपदे [692] // 19 // सव्वप्पवायमूल, दुवालसंग जओ जिण[सम ?]क्खायं / स्यणागरतुल्लं खलु, तो सव्वं सुंदरं तंमि // 1 // [उप० 694] ए उपदेशपदनी गाथामांहि कोइक इम सन्देह धरई छई-मर्वप्रवाद शुभ अशुभ होइ तिहां अशुभर्नु मूल जिनशासन किम होई ते माटि मिथ्याष्टिनइं परिणामई द्वादशांगस्वरूपथी सर्वनयात्मक होई, पणि फलथी नहोई साधुनुं फलथो पणि होई ते मार्टि-नानाजलसंभूत जलज जिम सामान्यथो जलज कहिंई तिम सर्वप्रवादमूल द्वादशांगकहिइ ते जुटुं, जे मार्टिस्वसमयपरसमयप्ररूपणाप्रकारइ सर्वप्रवादमूलपणु द्वादशांगनई कहितो कोइ दोष नयी // 20 //