SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [33] हैं। इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सम्बन्ध में मुनिश्री कलाप्रभसागरजी पृथक् रूप से लिख रहे हैं / इसलिए यहां विस्तार से देना उचित नहीं होगा / लिंग-निर्णय 'लिंगनिर्णय' छह काण्डों में विभक्त, लिंगानुशासन से सम्बद्ध अपने ढंग की अनूठी कृति है। इसमें 682 छन्दों में हेमचन्द्राचार्य की 'अभिधान चिन्तामणि नाममाला' में प्रयुक्त सारे शब्दों को परिगणित किया गया है। सामान्यतया कृतिकार ने शब्दों के परम्परागत लिंगों को स्वीकार किया है ; किन्तु कहीं-कहीं पर मतभेद भी हैं। ऐसे स्थलों पर प्रमाण स्वरूप कृतिकार ने वाचस्पति, अमरसिंह, गौड़, सर्वधर, रौद्र आदि कोशकारों तथा भाष्यकारों के मतों का उल्लेख किया है। कतिपय स्थलों पर अपनी मौलिक अवधारणा भी प्रस्तुत की है। ___ 'लिंगनिर्णय ' का प्रारंभ करते हुए कृतिकार ने स्वीकार किया है कि लिंगानुशासन को देखकर ही इस कृति की रचना की गई है। कृतिकार ने इस बात को स्वीकार किया है कि शब्दों को प्रवृत्तिभेद से स्वीकृत लिंग के अतिरिक्त अन्य लिंग में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। ऐसे शब्दों के विषय में प्रयोक्ता को अपनी बुद्धि के अनुसार शब्द-प्रयोग करने की स्वतंत्रता कृतिकार ने दे दी है। जिन शब्दों के लिंग उल्लिखित नहीं किये गये उनके विषय में कृतिकार मे कहा है कि उनके प्रयोग की परम्परा या रूढ़ि के अनुसार विद्वानों को अपनी बुद्धि से स्वयं निर्णय कर लेना चाहिए / 'लिंगनिर्णय' में स्वयं कृतिकार ने कुछ शब्दों का संकेत भर करके शेष को उसी प्रवृत्ति के आधार पर समझने की बात कही है। सारे शब्दों का उल्लेख न करने से ही यह ग्रन्थ छोटा हो गया है। छोटा होते हुए भी इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता / 'अभिधान चिन्तामणि' के अतिरिक्त अन्य किसी भी कोश ग्रन्थ पर इस तरह का लिंग-निर्वचनात्मक स्वतंत्र प्रन्थ प्राप्त नहीं होता। अतएव कोष-ग्रन्थों की परम्परा में भी और लिंगानुशासन की परंपरा में भी इसका विशिष्ट स्थान बना रहेगा। प्रति - परिचय, सम्पादन * शैली एवं आभार : प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में मैंने दो प्रतियों का उपयोग किया है। इन दोनों प्रतियों का परिचय इस प्रकार है : 5. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में क्रमांक 444 पर सुरक्षित है। इस प्रति का माप 25.9 x 11 सेंटीमीटर है / पत्र 15, पंक्ति 19, प्रति पंक्ति अक्षर 42 हैं। प्रतिलिपि कर्ता ने लेखन-पुष्पिका नहीं दी है। फिर भी इसका लेखन अनुमानतः 18 वीं शती का पूर्वार्द्ध है / अक्षर छोटे किन्तु स्फीत हैं / प्रतिलिपिकार की अज्ञता के कारण इस 1. पृष्ठ 1 पद्य 4, 2. पृ० 54 पद्य 110 3. पृ० 54 पद्य 115 4. पृ० 4 पद्य 23, पृ० 7 पद्य 74; पृ० 10 पद्य 5, पृ० 11 पद्य 9 आदि /
SR No.004307
Book TitleLingnirnayo Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalaprabhsagar
PublisherArya Jay Kalyan Kendra
Publication Year
Total Pages108
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy