________________ 174 विमलप्रभायां [ साधनाएवं शब्दजन्या वाद्येच्छा, भूषणेच्छा रूपजन्या, 'भोजनेच्छा रसजन्या, गन्धेच्छा गन्धजन्या, अंशुकेच्छा स्पर्शजन्या, मैथुनेच्छा धर्मधातुजन्या इति पूर्वादिवेदिका याम् / स्वकुलभेदेन काये कण्डूयनेच्छा चामुण्डाजन्या। वदनगतकफोत्सर्जनेच्छा वैष्णवीजन्या / अङ्गे मलेच्छा वाराहीजन्या। नृत्येच्छा कौमारीजन्या। आसनेच्छा रौद्रीजन्या। पयसि प्लावनेच्छा ब्रह्माणीजन्या। शयने मज्जनेच्छा ऐन्द्रीजन्या। राज्येच्छा लक्ष्मीजन्या इति // 44 // चामुण्डाद्यष्टकृत्यान्यपि च भुवितले क्रोधजानां तथेच्छा सन्तापे बन्धनेच्छा खलु मृदुवचने शोषणोच्चाटनेच्छा। स्पर्शाकृष्टौ च बन्धे भवति नरपते कीलने धावनेच्छा सर्वाङ्गक्षोदनेच्छा प्रकटितनियता मूत्रविस्रावणेच्छा // 45 // 10 [266b] चामुण्डाद्यष्टकृत्यान्यपि च भुवितले क्रोधजानां तथेच्छा / अत्र संतापेच्छा अतिनीलाजन्या। बन्धनेच्छा स्तम्भनीजन्या। मृदुवचनेच्छा मानिनीजन्या। शोषणेच्छा "जम्भनीजन्या। उच्चाटनेच्छा अतिबलाजन्या। तथा 'स्पर्शनेच्छा वज्रशृङ्खलाजन्या / आकृष्टीच्छा भृकुटीजन्या। बन्धनेच्छा चुन्दाजन्या। कोलनेच्छा मारोचीजन्या / धावनेच्छा रौद्राक्षीजन्येति। तथा दनुकुलजानामिच्छाः। सर्वाङ्ग'क्षोदनेच्छा श्वानास्याजन्या / मूत्रविसावणेच्छा शूकरास्याजन्या // 45 // सत्त्वानां वञ्चनेच्छा खलु बहुकलहे पञ्चमोच्छिष्टभक्ते संग्रामेच्छाऽहिबन्धे भवति दनुकुले दारकाक्रोशनेच्छा। सप्तत्रिंशत्प्रतीच्छाः पुनरपि च ततो मण्डले बाह्यपटयां यत्किञ्चित् सत्त्वकृत्यं प्रतिदिनसमये योगिनीकृत्यमत्र // 46 // सत्त्वानां वञ्चनेच्छा जम्बुकास्याजन्या। बहुकलहेच्छा व्याघ्रास्याजन्या। 'उच्छिष्टभक्तेच्छा काकास्याजन्या। संग्रामेच्छा गृध्रास्याजन्या। अहिबन्धनेच्छा गरुडास्याजन्या। वारकाक्रोशनेच्छा उलूकास्याजन्येति / सप्तत्रिंशदिच्छा वाङ्मण्डले स्वकुलभेदेन स्वस्वदिक्षु। एवं सप्तत्रिंशत् प्रतीच्छाः, इच्छानां निवर्तनं प्रतीच्छा का 1. क. 'भोजनेच्छा रसजन्या' नास्ति / 2. ग. च. 'याम्' नास्ति / 3. ग. सु, भो. 'स्व' नास्ति / 4. ग. च. स्तम्भी। 5. ग. च. जम्भी। 6. ग. च. भो. स्पर्शेच्छा। 7. ग. बन्धेच्छा, भो. gNen Pa hDod Ma (बान्धवेच्छा)। 8. भो. bsKyod Pa (क्षोभणे)। 9. क. ख. ग. छ. उत्सिष्ट / 10. ग. भुक्त। 11. ग. बन्धेच्छा।