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________________ ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि पुन्नाट संघ के कुछ मुनि उन लोगों की प्रार्थना या अनुग्रह से सुदूर काठियावाड़ तक पहुँचे। "हरिषेण" तक यह संघ काठियावाड़ में रहा उसके बाद में इसका काठियावाड़ में रहने का कोई पता नहीं चला है। हरिवंशपुराण के अंतिम सर्ग में कवि ने वर्धमानपुर (वढ़वाण) में नन्नराज वसति या उसके किसी वंशधर के द्वारा बनवाये गये जैन मन्दिर का उल्लेख है।९ कन्नड़ में नकार के प्रयोगों की दृष्टि से यह नन्नराज नाम भी "कन्नड़" का प्रतीत होता है क्योंकि इस नाम को धारण करने वाले कुछ राष्ट्रकूट राजा भी हुए हैं। इन राष्ट्रकूट राजाओं के प्रसिद्ध नामों के साथ उनके घरू नाम कुछ और भी रहते। जैसे-कन्न, कन्नर, अण्ण, बौद्दण, तुउंग, बद्दिग आदि। यह नाम भी ऐसा ही घरेलु नाम जान पड़ता है।२१ "पुन्नाट संघ" का इन दो ग्रन्थों के सिवाय अभी तक और कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। कर्नाटक प्रान्त का यह संघ था परन्तु वहाँ के शिलालेख इत्यादि में भी इसका उल्लेख नहीं मिला है। इससे यह प्रतीत होता है कि पुन्नाट (कर्नाटक) से बाहर जाने पर ही संघ "पुन्नाट संघ" कहलाया जिस प्रकार कि आजकल कोई एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाकर रहते हैं तब वह अपने पूर्व स्थान वाला कहलाने लगता है। जैसेमारवाड़ के लोग जब गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि में रहने पर वहाँ वे मारवाड़ी कहलाने लगते हैं। पुराणकार जिनसेन स्वामी ने समीपवर्ती गिरनार की सिंहवाहिनी माँ अम्बादेवी का भी उल्लेख किया है तथा उसे विघ्नों का नाश करने वाली शासनदेवी बतलाया है। गृहीतचक्राऽप्रतिचक्रदेवता तथोर्जयन्तालयसिंहवाहिनी। शिवाय यस्मिनिह सनिधीयते व तत्र विघ्नाः प्रभावन्ति शासने॥६६/४४ इससे यह पता चलता है कि उस समय में भी गिरनार पर्वत पर अम्बादेवी का प्रसिद्ध मन्दिर रहा होगा। उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि यह वर्धमानपुर सौराष्ट्र का प्रसिद्ध शहर वढ़वाण ही है, जहाँ जिनसेन ने पार्श्वनाथ के मन्दिर में उपर्युक्त प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की। जिनसेन द्वारा निर्दिष्ट पूर्ववर्ती विद्वान् : आचार्य जिनसेन ने अपने पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थ-कर्ताओं तथा विद्वानों का नाम स्मरण करते हुए कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उनकी प्रशंसा की है। निम्नांकित पद्यों में कई आचार्यों तथा कवियों का वर्णन प्राप्त होता है। जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम्। वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते॥१/२९ .
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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