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________________ ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वत्सराज ने मारवाड़ से आकर ही मालवा पर कब्जा किया होगा तथा बाद में ध्रुवराज के आक्रमण के समय पर वह फिर मारवाड़ की तरफ भाग गया होगा। "अवन्तिका" भी वढ़वाण से पूर्व दिशा में स्थित है परन्तु उस समय वहाँ कौन राजा था, उसका पता नहीं चलता है कि जिसकी सहायता के लिए ध्रुवराज दौड़ा था। ध्रुवराज शक संवत् 707 के आसपास गद्दी पर बैठा था। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि हरिवंश की रचना के समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में श्रीवल्लभ तथा पूर्व में वत्सराज का राज्य होनः उचित प्रतीत होता है। (4) वीर जयवराह : यह पश्चिम में सौरों के अधिमण्डल का राजा था। सौरों के अधिमण्डल का अर्थ सौराष्ट्र से किया जाता है जो काठियावाड़ वढ़वाण से दक्षिण में है। "सौर" लोगों का राष्ट्र सौर-राष्ट्र था। सौराष्ट्र से वढ़वाण और उसके पश्चिम की ओर का प्रदेश ही ग्रन्थकर्ता को अभीष्ट है। यह राजा किस वंश का था, इसके बारे में ठाक पता नहीं चलता परन्तु कई विद्वानों ने इन्हें चालुक्य वंश का राजा स्वीकार किया है। इनके नाम के आगे "वराह" का प्रयोग इसी तरह होता होगा, जिस तरह कीर्तिवर्मा (द्वितीय) के साथ महावराह का। राष्ट्रकूटों के पहले चालुक्य सार्वभौम राजा थे तथा काठियावाड़ पर भी इनका अधिकार था। उनका यह सार्वभौमत्व शक संवत् 675 के लगभग राष्ट्रकूटों ने छीना था, इसलिये ज्यादा सम्भव यही है कि हरिवंश की रचना के समय सौराष्ट्र पर चालुक्य वंश की ही किसी शाखा का अधिकार हो और इसी को तब "वराह" लिखा हो। पूरा नाम जयसिंह हो और वराह उसका विशेषण। प्रतिहार राजा "महीपाल" के समय का एक दानपत्र हडाला गाँव (काठियावाड़) में शक संवत् 836 का मिला है। उससे मालूम होता है कि उस समय वढ़वाण में "धरणीवराह" का अधिकार था जो चावड़ा वंश का था। उन प्रतिहारों का करद राजा था। इससे यह सम्भावना व्यक्त की है कि शायद "जयवराह" उनके चार छः पीढ़ी का पूर्वज रहा होगा।८ . काठियावाड़ के वढ़वाण में पुन्नाट संघ : . वैसे जैन मुनिजनों में सर्वत्र विहार करने की प्रवृत्ति परम्परा से चली आ रही है। लेकिन सुदूर कर्नाटक से उपर्युक्त "पुन्नाट संघ" का काठियावाड़ में पहुँचना तथा वहाँ कई वर्षों तक स्थाई रहना असाधारण प्रतीत होता है। इसका सम्बन्ध दक्षिण के चालुक्य और राष्ट्रकूट राजाओं के कारण ही जान पड़ता है, जिनका शासन गुजरात तथा काठियावाड़ पर बहुत समय तक रहा तथा उनकी जैन-धर्म पर असीम कृपा दृष्टि रही। अनेक चालुक्य और राष्ट्रकूट राजाओं ने तथा उनके माण्डलिकों ने जैन मुनियों को दान दिये हैं और आदर किया है। उनके बहुत से अमात्य, मंत्री, सेनापति इत्यादि जैन धर्म के अनुयायी रहे हैं। - -
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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