________________ हरिवंशपुराण (संस्कृत) तथा उत्तरपुराण (संस्कृत) की शैली पर रचित काव्यग्रन्थ है। इनका रचनाकाल क्रमशः ईसवी सन् 1723 तथा 1742 माना जाता है।२६ इस ग्रन्थ में बोलचाल की सरल हिन्दी का प्रयोग हुआ है। इनमें चौपाई, दोहा, सोरठा इत्यादि छन्द प्रयुक्त हुए हैं। इन कृतियों में अरिष्टनेमि, श्रीकृष्ण, बलराम, जरासंध इत्यादि का चरित्र निरूपण हुआ है। (15) नेमिचन्द्रिका : यह कवि "मनरंगलाल" को रचना है। इन्होंने भी अपनी कृति की विषय-वस्तु के लिए जिनसेनाचार्य कृत हरिवंश को आधार बनाया। कृति का रचनाकाल ईसवी सन् 1823 है, जैसा कि कवि ने स्वयं उल्लेख किया है। इसमें कुल 381 छन्द हैं। गणेश वन्दना के पश्चात् द्वारिका का वैभव, श्री कृष्ण की शक्ति-सम्पन्नता, नेमिनाथ का जन्म तथा उनका वैराग्य, कैवल्यज्ञान तथा मोक्षगमन आदि का वर्णन है। यह नेमिनाथ की परम्परागत कथावस्तु से आधारित खण्ड काव्य की रचना है। इसकी भाषा सरल, बोलचाल की हिन्दी है। इसमें दोहा, सोरठा, चौपाई, अडिल्ल तथा भुजंगप्रयात आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं। . ऊर्ध्वलिखित विवेचनानुसार वैष्णव परम्परा की भाँति जैन परम्परा में भी कृष्ण चरित्र का विशद वर्णन हुआ है। जिस प्रकार से वैष्णव परम्परा में श्री कृष्ण का वर्णन वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा अद्यावधि अनेक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होता है, उसी प्रकार से यह वर्णन जैन साहित्य के आगमकाल से आगमेतर काल तक विभिन्न भारतीय भाषाओं में निरूपित हुआ है। - विवेचित कृतियों के अलावा भी जैन साहित्य के अनेक कृतिकारों ने अपने ग्रन्थों में श्री कृष्ण कथा का निरूपण किया है। इनमें से अनेक ग्रन्थ अप्रकाशित हैं, जिनकी हस्तलिखित प्रतियाँ विविध साहित्य भण्डारों में संग्रहित पड़ी हैं। डॉ० महावीर कोटियाँ ने अपने शोध ग्रन्थ "जैन साहित्य में कृष्ण" में ऐसी अनेक कृतियों का उल्लेख किया है।१२७ उन सब कृतियों का उल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है परन्तु यह निश्चित है कि जैन साहित्यकारों ने अपनी मौलिकता के आधार पर कृष्ण कथा को एक नवीन स्वरूप प्रदान किया है, जिससे सामान्य जन आज भी अपरिचित है। इस नवीन दृष्टिकोण को ही प्रकाश में लाना हमारा मुख्य हेतु रहा है। * * *