________________ इस प्रकार हम देखते हैं कि पन्द्रहवीं सदी में भक्तिधारा से ओतप्रोत ब्रज भाषा के कवियों ने जो प्रेम-भक्ति का अंकुर बो दिया था, वह शताब्दियों तक पुष्पित, पल्लवित और फलित होता रहा। प्रेमपूर्ण मधुरा भक्ति शनैः शनैः अग्रसर होती रही। रीतिकाल में ऐसे भी अनेक कवि हुए हैं, जिन्हें विशुद्ध कृष्ण भक्ति कवि नहीं कहा जा सकता, परन्तु उन्होंने भक्तिकालीन भक्तिभाव का स्वच्छन्द प्रेम के रूप में निरूपण किया है, जो उनकी कृतियों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है। इनका प्रधान कथ्य तो श्रृंगार ही रहा है, परन्तु कहीं-कहीं पर गहरी भक्तिभावना के भी दर्शन होते हैं। इन्होंने राधा-कृष्ण के माध्यम से श्रृंगार रस की अपूर्व सरिता प्रवाहित की थी, लेकिन साथ ही ये लोग यह भी नहीं भूले थे कि राधा-कृष्ण आराध्य और भक्ति के आलम्बन थे। जैसे ग्वाल कवि की ये दो पंक्तियाँ देखिये, जिनमें इन्होंने राधा से अपराध के लिए क्षमायाचना माँगी है श्रीराधा पदपद्म को, प्रनमि प्रनमि कवि ग्वाल। छमवत हैं अपराध को, किबो जु कथन रसाल॥ . इन कवियों में बिहारी, रहीम, देव, ग्वाल, भिखारीदास आदि उल्लेखनीय हैं। इनके काव्य में भावपूर्ण छन्द मिलते हैं, जिसमें उनके हृदय का दैन्य मात्र प्रभु पर निर्भरता, आत्मग्लानि, कातरता, विनय आदि के भाव से व्यक्त हुआ है। तो पर वारो उबरसी, सूनि राधिके सुजान। तू मोहन के उर बसी, है उरबसी समान॥ (बिहारी-सतसई) स्वछन्द प्रकृति के कवि घनानन्द, आलम, ठाकुर, बोधा, ताजबीबी आदि के काव्य में भी हमें कृष्ण प्रेम का अशरीरी एवं मानसिक रूप दृष्टिगोचर होता है। इनका लौकिक प्रेम भी श्री कृष्ण का अलौकिक आलम्बन ग्रहण करता दिखाई देता है।। अवधी कृष्ण-काव्य : कैसे ब्रज भाषा में कृष्ण-काव्य की प्रधानता रही है परन्तु अवधि भाषा में भी कृष्ण काव्य का प्रणयन प्रचुर मात्रा में हुआ है। डॉ० मुरालीलाल शर्मा "सुरस" ने अपने शोध प्रबन्ध "अवधि कृष्णकाव्य और कवि" में इस विषय का विस्तृत वर्णन किया है। संक्षेप में हम देखें तो लालदास का "हरिचरित्र" सर्वप्रथम कृष्ण चरित्र का प्रबन्ध काव्य है। इसकी रचना ई०स० 1587 में हुई थी। यह भागवत के दशम स्कन्ध के आधार पर निरूपित कृति है। बेनु विषान वंशी कर लीन्हें। शोषित मनिगन भूषन कीन्हैं। गूंजा फल सोभित वनमाला। मंद मंद गति चलत गुपाला।