________________ निष्कर्ष के तौर पर भक्ति के इन चारों प्रकारों में श्री कृष्ण भक्त कवियों ने विशेष रूप से मधुरा भक्ति को ही अपनाया है। कृष्ण भक्ति परम्परा का लम्बा इतिहास रहा है इसके सम्बन्ध में अधोलिखित उद्धरण अवलोकनीय है___वेदों से जो भक्ति-कल्पवल्लि अंकुरित हुई, वही आगे चलकर विष्णु, नारायण, वासुदेव कृष्ण जैसे विविध देवकल्पद्रुमों का आश्रय पाकर सात्वत धर्म, भागवत धर्म, पांचरात्र धर्म, ऐकान्तिक भक्ति, वैष्णव भक्ति, पुष्टि सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय, राधावल्लभी सम्प्रदाय, हरिदासी सम्प्रदाय जैसी भक्ति-धाराओं से अभिसिंचित होकर रामेश्वर से हिमालय एवं कच्छ से असम तक खूब फूली, फली। इस भक्ति ने विगत सहस्र से भी अधिक वर्षों से भारत ही नहीं, वरन् सारे विश्व के अनेक देशों के जनमानस को अपनी असीम धाराओं से संतृप्त एवं परिपुष्ट कर उसे परम आह्लादकारी एवं उत्तरोत्तर अभिवृद्धिमती जिजीविषा के मधुर ज्वार से कृतकाम कर रखा है। ____ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कृष्ण भक्त कवियों की तन्मयता और निःस्पृहता की आलोचना करते हुए लिखा है कि. "सब सम्प्रदायों के कृष्ण भक्त भागवत में वर्णित बालकृष्ण की बाल लीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेम लक्षणा भक्ति के लिए कृष्ण का मधुर स्वरूप ही पर्याप्त समझा। महत्त्व की भावना से उत्पन्न श्रद्धा या पूज्य-बुद्धि का आश्रय छोड़ देने के कारण कृष्ण के लोक-रक्षक और धर्म-स्थापक स्वरूप को सामने रखने की आवश्यकता उन्होंने नहीं समझी। उनकी रचनाओं में न तो जीवन के अनेक गम्भीर पक्षों के मार्मिक रूप स्फुरित हुएँ और न अनेकरूपता आई।।७८ : आचार्य शुक्ल का यह आलोचनावादी दृष्टिकोण बहुत दिनों तक प्रभावित रहा एवं कुछ अंशों में आज भी है। शुक्ल ने साहित्य का एकमात्र हेतु लोकहित ही स्वीकार किया है। लेकिन कई विद्वानों ने कृष्ण भक्ति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है क्योंकि इस काव्य में कृष्ण भक्तों ने मानव-मन को परिष्कार करने की व्यंजना पद्धति अपनाई है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कृष्ण भक्तों के साहित्य की इसी मूल भावना की पहचान कर; उसका मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि... "श्री कृष्ण भक्ति का साहित्य मनुष्य की सबसे प्रबल भूख का समाधान करता है। वह मनुष्य को बाह्य-विषयों की आसक्ति से तो अलग कर देता है लेकिन उसे शुष्क तत्त्ववादी और प्रेमहीन कथनी का उपासक नहीं बनाता। वह मनुष्य की सरसता को उबुद्ध करता है। उसकी अन्तर्निहित अनुराग-लालसा को ऊर्ध्वमुखी करता है और उसे निरन्तर रससिक्त बनाता है। वह अपने भक्त को जागतिक द्वन्द्व और कर्त्तव्यगत संघर्ष से हटाकर भगवान् के अनन्यगामी प्रेम की शरण में ले जाती है। 179 -