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________________ विशाल वन में जा निकली। रात्रि के समय वह प्रतिमा तुल्य आर्यिका किसी मार्ग के सम्मुख प्रतिमायोग में विराजमान हो गयी। उसी समय किसी धनी संघ पर आक्रमण करने के लिए भीलों की एक सेना वहाँ आई तथा उसने प्रतिमायोग में विराजमान उस आर्यिका को देखा। भीलों ने वनदेवी समझ कर उससे वरदान माँगा कि यदि आपके प्रसाद के फलस्वरूप हम लोग निरुपद्रव धन को प्राप्त करेंगे तो हम आपके पहले दास होंगे। ऐसा मनोरथ कर भीलों को समूह यात्रियों के समूह पर टूट पड़ा तथा उन्हें लूटकर कृतकृत्य हो गये।६८ उधर जब भील लोग उस आर्यिका के दर्शन कर लूट के लिए आगे बढ़े, तब वहाँ एक सिंह ने आकर घोर उपसर्ग शुरु किया। उपसर्ग देख, उसने बड़ी शांति से समाधि धारण की तथा मरण-पर्यन्त के लिए अनशनपूर्वक रहने का नियम लिया। तदनन्तर वह प्रतिमायोग में ही मर कर स्वर्ग गई। आर्यिका का शरीर सिंह के नख और डाढ़ों के अग्रभाग में विदीर्ण होने के कारण यद्यपि छूट गया था, तथापि उसके हाथ की तीन अंगुलियाँ शेष रह गई। यही तीन अंगुलियाँ उन भीलों को वापस आने पर दिखाई दी। भीलों ने आर्यिका को आकुलता के साथ इधर-उधर देखा परन्तु वह नहीं दिखाई दी। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि वरदान देने वाली यह देवी रुधिर में ही सन्तोष धारण करती है, इसी से यह भूमि रक्त रंजित हो गई है। उन्होंने हाथ की तीन अंगुलियों को वहीं देवता के रूप में विराजमान कर दिया तथा बड़े-बड़े भैसों को मारकर उसे खून एवं माँस की बलि चढ़ानी शुरू की। यद्यपि वह आर्यिका परम दयालु, एवं निष्पाप थी परन्तु इस संसार में माँस के लोभी मूर्खजन भीलों के द्वारा दिखलाये गये मार्ग से चलकर उसी समय से भैंसों आदि पशुओं को मारने लगे।६९ ___उपर्युक्त विवरणानुसार श्री कृष्ण की छोटी बहिन जिसने आर्यिका का व्रत धारण किया था परन्तु वन में सिंह द्वारा मारने पर उसकी शेष रही तीन अंगुलियों को ही (त्रिशूल) देव मानकर लोग उसे बलि चढ़ाने लगे। अर्थात् संसार में इसी कन्या को दुर्गा . मानकर उसकी पूजा की जाने लगी। महामुनि नारद वृत्तान्त : शास्त्रों में नारद मुनि को बहुत ही महत्त्व प्रदान किया गया है। वे सशरीर स्वर्ग लोक, मृत्युलोक में फिर सकते हैं। नारद भगवान् के प्रियभक्त तथा मुनि थे, जिनको महर्षि भी कहा जाता था, समाचारों के आदान-प्रदान में उनको विशेष योग्यता हासिल थी। हरिवंशपुराण में भी नारद मुनि का उल्लेख मिलता है परन्तु इस वर्णन में भी कवि ने अपनी मौलिकता के आधार पर नवीन रूप प्रदान किया है। नारद की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि, सोमपुर से सुमित्रा नामक तापस और सोमयशा नामक स्त्री से चन्द्रकाँति के समान एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। एक दिन बालक को वृक्ष के नीचे रखकर वे दोनों उञ्छवृत्ति के लिए चले गये। इतने में जृम्भकदेव पूर्वभव के स्नेह से
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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