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________________ समझ लिया कि कोई क्षुद्र-वृत्तिवाला व्यक्ति इसे हर कर ले गया है। सभी यादव उसके समाचारों को तत्पर थे कि एक दिन नारद मुनि वहाँ आये। यादवों ने उनका सत्कार किया। पूछने पर नारद मुनि ने कहा कि, मैंने द्रौपदी को धातकी खण्ड द्वीप की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ के घर देखा है। वह अत्यन्त दुःखी है। आप जैसे भाईयों के रहते वह शत्रु के घर में क्यों रह रही है? द्रौपदी के समाचार सुन कृष्ण अत्यन्त हर्षित हुए। वे अपकार के साथ उपकार करने वाले नारद की प्रशंसा करने लगे।६१ श्री कृष्ण शत्रु के प्रति द्वेष प्रकट कर लवण-समुद्र के अधिष्ठाता देव की आराधना कर पाँचों पाण्डवों के साथ तुरन्त ही अमरकंकापुरी के उद्यान में पहुँच गये। खबर पाते ही पद्मनाभ चतुरंग सेना लेकर युद्ध के लिए आया परन्तु युद्ध में उन्हें इतना मारा कि उसकी सेना भाग कर नगर में घुस गई। पद्मनाभ ने नगर के द्वार बन्द कर दिये। नगर के द्वार लांघना पाण्डवों के वश में नहीं था। तब श्री कृष्ण ने स्वयं अपने पैर के आघातों से द्वार को तोड़ना प्रारम्भ किया। उनके पैर के आघांत वज़ के प्रहार थे। इतना ही नहीं उन्होंने नगर की समस्त बाह्य एवं आभ्यन्तर भूमि को भी तहस-नहस कर डाला। प्राकार और गोपुर टूट गये, बड़े-बड़े महल व शालाओं के समूह गिरने लगे, मदोन्मत्त हाथी व घोड़े इधर-उधर दौड़ने लगे, समस्त नगर में हाहा कार हो गया। बिभेद पादनिर्घातैर्निर्घातैरिव नागरीम्। बहिरन्तर्भुवं विश्वां भ्रश्यत्प्राकारगोपुराम्॥ पतत्प्रासादशालौघैर्धाम्यन्मत्तेभवाजिनि। विप्रलापमहारावे पुरे जाते जनाकुले॥६२ -- इस पर द्रोही राजा पद्मनाभ निरुपाय हो द्रौपदी के पास गया तथा उसे क्षमा माँगने लगा। द्रौपदी परम दयालु थी। उसने कहा कि, तू स्त्री का देह धारण कर चक्रवर्ती कृष्ण के चरण में जा क्योंकि जो भीरु है तथा भीरुजनों का वेश धारण करते हैं, वे उस पर दया करते हैं। द्रौपदी के कहानुसार पद्मनाभ स्त्री का वेश धारण कर श्री कृष्ण के चरण में गया। श्री कृष्ण शरणागतों का भय हरने वाले थे अतः उन्होंने उसे अभयदान देकर अपने स्थान पर वापस भेजा। मात्र उसके स्थान व नाम में परिवर्तन कर दिया। द्रौपदी ने आकर श्री कृष्ण के चरणों में नमस्कार किया एवं पाण्डवों के साथ यथायोग्य विनय का व्यवहार किया। तदनन्तर श्री कृष्ण ने द्रौपदी को रथ में बैठाकर समुद्र के किनारे अपना शंख बजाया। उसकी आवाज सुन वहाँ पर स्थित कपिल नारायण ने श्री कृष्ण का साक्षात्कार कियां / तत्पश्चात् श्री कृष्ण व पाण्डव द्रौपदी सहित पहले की भाँति महासागर को शीघ्र पार कर उस तट पर आ गये।५२ -
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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