________________ कि तुम हमारा अपकार करने में प्रवृत्त हो तथापि हम नमस्कार मात्र से प्रसन्न हो तुम्हारे अपकार को क्षमा किये देते हैं। समान शक्तिशाली व बलशाली उन दोनों शलाकापुरुषों का एक-दूसरे के आधिपत्य में रहना संभव हो ही नहीं सकता। फलतः श्री कृष्ण ने कुपित होकर अपना चक्र छोड़ा। उसने शीघ्र जाकर जरासंध के वक्षःस्थल रूपी भित्ति को भेद दिया। प्रतापी जरासंध के वध के साथ ही श्री कृष्ण को अर्ध-भरत क्षेत्र का स्वामी स्वीकार कर लिया गया। अत्रान्तरे सुरैस्तुष्टैस्तस्मिन्नुपुष्टमम्बरे। नवमो वासुदेवोऽभूद् वसुदेवस्य नन्दनः॥२९ अवतीर्य विमानेभ्यो वसुदेवानुयायिनः।। वासुदेवं बलोपेतं प्रणेमुः प्राभृतान्विताः॥३० / अभिषिक्तौ ततः सर्वैर्भूपैर्भूचरखैचरैः। भरतार्धबिभुत्वे तौ प्रसिद्धौ रामकेशवौ॥३१ इस प्रकार से हरिवंशपुराण में श्री कृष्ण चरित्र वर्णन में प्रत्येक सर्ग में कवि ने उनकी वीरता, तेजस्विता, अद्वितीय पराक्रम, अप्रतिम शक्ति सम्पन्नता इत्यादि का ही वर्णन किया है। उन्होंने श्री कृष्ण को नौंवा नारायण साबित कर उन्हें वीर पुरुष की श्रेणी तक ही सीमित रखा है। फिर भी जैन परम्परा उन्हें भगवत्कोटि में सम्मिलित करती है इसलिए ही उनकी गणना त्रेसठ शलाकापुरुषों या महापुरुषों में भगवान् महावीर आदि चौबीस तीर्थंकरों के साथ की गई है। त्रेसठ शलाकापुरुषों की गणना में श्री कृष्ण नवम वासुदेव हैं। उनका प्रतिद्वन्द्वी जरासंध नवम प्रतिवासुदेव है। बलभद्र वासुदेव का अग्रज होता है। इस समस्त विवरण के आधार पर हम कहना चाहते हैं कि जैन मान्यतानुसार कृष्ण शलाकापुरुष वासुदेव हैं / उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का वर्णन इसी मान्यता के अनुकूल है जिसमें उन्हें महान धनुर्धारी, विशिष्ट बलधारक, धीरपुरुष, उच्च कुलोत्पन्न, अर्धभरत क्षेत्र के स्वामी, दीप्त तेज वाले, प्रवीर पुरुष एवं भयंकर युद्ध को भी विघटित कर सकने वाले राजपुरुष रूप में वर्णित किया है। श्री कृष्ण के विवाह हरिवंशपुराण में आचार्य जिनसेन ने श्री कृष्ण की आठ पट्टरानियों का उल्लेख किया है जिसका वर्णन हम कथावस्तु के अनुच्छेद में कर चुके हैं। परन्तु पुराणकार का यह विवेचन भी नवीन उद्भावना पर आधारित है जो संक्षेप में इस प्रकार से है :