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________________ (30) बहुरत्ना वसुन्धरा / (42/31) (यह पृथ्वी अनेक रत्नों से युक्त है।) (31) अहो प्रमदहेतवोऽपि सुखयन्ति नो दुःखितान्। (42/102) (दुखी मनुष्यों को हर्ष के कारण सुख नहीं पहुँचाया जा सकता।) (32) दैवमेव परंलोके धिक् पौरुषकारणम्। (43/68) (संसार में अकारण पुरुषार्थ को धिक्कार है।) (33) सद्भूतस्यापि दोषस्य परकीयस्य भाषणम्। पापहेतुमोघः स्यादसद्भूतस्य किं पुनः॥ (45/153) (दूसरों के विद्यमान दोष का कथन करना भी पाप का कारण है फिर अविद्यमान दोष के कथन करने की तो बात ही क्या है? वह तो ऐसे पाप का कारण होता है जिसका फल कभी व्यर्थ नहीं जाता अर्थात् अवश्य ही भोगना पड़ता है।) (34) त्यजत वाचमसत्यमलोद्धतां भजत सत्यवचोनिरवद्यताम्। . निजयशोविशदां सगुणोद्यतां विजयिनीं त्विह विश्वविदोदिताम् // (45/158) (असत्यरूपी दोष से उद्यत वाणी को छोड़ो एवं सत्यवचन से उत्पन्न उस निर्मलता का सेवन करो जो अपने यश से विशद है, गुणी मनुष्यों को प्राप्त करने में उद्यत है। इस लोक में विजय प्राप्त कराने वाली है एवं स्वर्ग देव के द्वारा निरूपित है।) - (35) वक्ता श्रोता च पापस्य यन्नात्र फलमश्नुते। . तदमोघमुत्रास्य वृद्धर्थमिति बुद्ध्यताम् // (45/156) (पाप का वक्ता और श्रोता जो इस लोक में अपना फल नहीं प्राप्त कर पाता है वह मानो परलोक में वृद्धि के लिए सुरक्षित है।) (36) पुण्यस्य किम् दुष्करम्। (46/16) (पुण्य के लिए कौनसा कर्म कठिन है।) (37) अदेशकालं नहि नर्म शोभते / (54/6) (परदेश तथा अनुचित समय में नम्रता शोभास्पद नहीं है।) (38) क्लिशितधीर्हि जिनेष्वपि शङ्कते। (55/19) (संक्लिष्ट बुद्धि के धारक मनुष्य भगवान् जिनेन्द्र के बारे में भी शंका करते हैं।) (39) भ्रमति हि स्वपतां भुवने मनः। (55/23)
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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