________________ (यथार्थ में सोने वालों का मन संसार में भ्रमण करता रहता है।) (40) जातानां हि समस्तानां जीवानां नियता मृतिः। (61/20) (उत्पन्न हुए समस्त जीवों का मरण निश्चित है।) (41) क्षमामूलस्तपो भारो वक्ष्यते क्रोधवह्निना। (61/62) (ऐसा तप जिसकी जड़ क्षमा है वह क्रोधरूपी अग्नि से जल जाता है।) (42) मोक्षसाधनमष्येष तपो दूषयति क्षणात्। चतुर्वर्गरिपुः क्रोधः क्रोधः स्वपरनाशकः॥ (61/63) (यह क्रोध मोक्ष के साधन-भूत तप को क्षण भर में दूषित कर देता है वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गों का शत्रु है तथा निज पर को नष्ट करने वाला है।) (43) दुर्वारा हि भवितव्यता। 761/77 ___(वास्तव में जो होने वाला है, वह दुर्निवार है।) (44) आगाढे वाप्यनागाढे मरणे समुपस्थिते। न मुह्यन्ति जना जातु जिनशासनभाविताः॥ (61/96) (जो मनुष्य जिनशासन की भावना से युक्त है वे सम्भावित और असम्भावित किसी भी प्रकार का मरण उपस्थित होने पर कभी मोह को प्राप्त नहीं होते।) (45) परस्यापकृतिं कुर्वन् कुर्यादेकत्र जन्मनि। पापी परवधं स्वस्य जन्तुर्जन्मनि जन्मनि // (61/101) (दूसरे का अपकार करने वाला पापी मनुष्य दूसरे का वध तो एक जन्म में करता है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म-जन्म में करता है।) _ (46) संसारवर्धनोऽन्येषां भवेद्वा वधको न वा। (61/102) (दूसरों का वध करे या न करे, वह अपना संसार बढ़ाता है।) ___(47) परं हन्मीति संध्यातं लोहपिण्डमुपाददत् / दहत्यात्मानमेवादौ कषायवशगस्तथा // (61/103) (जिस प्रकार तपाये हुए लोहे के पिण्ड को उठाने वाला मनुष्य पहले अपने आपको जलाता है, पश्चात् दूसरों को जला सके अथवा नहीं। उसी प्रकार कषाय के वशीभूत प्राणी दूसरों का घात करूँ इस विचार के उत्पन्न होते ही पहले अपने आपका घात करता है पश्चात् दूसरे का घात कर सके या नहीं कर सके।) . पापा परवध - -