________________ (शीतल स्वभाव के धारक साधु को सन्तान पहुँचाना शांति के लिए नहीं है क्योंकि जिस प्रकार अधिक तपाया हुआ पानी विकृत होकर जला देता है उसी प्रकार दुःखी किया हुआं साधु विकृत होकर जला देता है, शाप आदि से ही नष्ट करता है।) (21) दृष्टश्रुतानुभूतं हि नव धृतिकरं नृणाम् / (21/37) (देखी सुनी और अनुभव में आयी नूतन वस्तु ही मनुष्यों को सुखदायक होती है।) (22) अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्थस्य पदस्य वा। दातारं विस्मरन् पापी किं पुनर्धर्मदेशिनम् // (21/156) (एक अक्षर, आधे पद अथवा एक पद को भी देने वाले गुरुओं को भूल जाता है वह भी जब पापी है तब धर्मोपदेश के दाता को भूल जाने वाले मनुष्य को तो कहना ही क्या है।) (23) पापकूपे निमग्नेभ्यो धर्महस्तावलम्बनम् / ददता कः समो. लोके संसारोत्तारिणा नृणाम् // (21/155) (जो पाप रूपी कुएँ में डूबे हुए व्यक्ति को धर्मरूपी हाथ का सहारा देता है तथा संसार सागर से पार कराने वाला है, उस मनुष्य के समान संसार में मनुष्यों के बीच दूसरा कौन है?) (24) स्त्रीणां प्रणयकोपस्य प्रणामो हि निवर्तकः। (22/46) (हाथ जोड़कर किया हुआ नमस्कार स्त्रियों के मान को दूर कर देता है।) . (25) कुतो लुब्धस्य सत्यता। (27/35) (लोभी मनुष्य में सत्यता कैसे हो सकती है।) (26) न मुह्यति प्राप्तकृतौ कृतीति / (35/62) .. (कुशल मनुष्य अवसर के अनुसार कार्य करने में कभी नहीं चूकते।) (27) न राज्यलाभोऽभिमतोऽनपत्यः। (35/68) (संतान के बिना राज्य लाभ भी अच्छा नहीं लगता।) (28) स्फुटवदन विकाराल्लक्षितं चित्तदुःखम् / (36/20) (कठोर वचनों से तिरस्कार करना क्या उचित है?) . (29) व पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम् / (37/3) ___ (धन की वर्षा करने वाले को पात्र भेद कहाँ होता है।)