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________________ (10) अत्यभ्यर्णविपत्तीनां मन्त्रिणो हि निवर्त्तकाः। (14/66) (अत्यन्त निकटवर्ती मंत्री आपत्तियों को दूर करते हैं।) (11) षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रो रक्षणीयः स यत्नतः। (14/83) (छः कानों में पहुँचा हुआ मंत्र फूट जाता है, अतः उसकी रक्षा का यत्न करना चाहिए।) (12) तप्तं तप्तेन योज्यते / (14/91) ___ (संतप्त वस्तु दूसरी संतप्त वस्तु के साथ मिलाई जा सकती है।) (13) रहसि दुर्लभमाप्य मनीषितं, न हि विमुञ्चति लब्धरसो जनः। (15/4) (दुर्लभ वस्तु को पाकर उसका रस प्राप्त करने वाले उसे छोड़ते नहीं।) (14) न सुलभं समुखे किमु भर्तरि। (15/15) / (भर्ता के अनुकूल रहने पर कौनसी वस्तु सुलभ नहीं) (15) परिचितः प्रणयः खलु दुस्त्यजः। (15/93) ____ (परिचित अनुभूत स्नेह बड़ी कठिनाई से छूटता है।) (16) का वा कठिनचित्तस्य जिनशासनभक्तता। (18/148) (उस कठोर हृदय वाले के जिनशासन की भक्ति क्या है?) (17) पुनर्बोधिपरिप्राप्तिः दुर्लभा भवसंकटे / (18/150) (इस संसार के चक्कर में पुनः बोध की प्राप्ति दुर्लभ ही समझनी चाहिए।) (18) का स्त्री का वा स्वसा भ्राता कौ वै कार्याभिलाषिणः। वैरिणो ननु हन्तारो हन्तव्यं नात्र दुर्यशः। (19/106) (कार्य के इच्छुक मनुष्यों के लिए क्या स्त्री! क्या बहन! क्या भाई! उन्हें तो जो वैरी अपना घात करे उसकी अवश्य ही बात करना चाहिए इसमें कुछ भी अपयश नहीं है।) (19) उत्तिष्ठेद् यद्यसौ तस्मात्तस्य शांतिः कुतोऽन्यतः। (20/34) (यदि जल से ही अग्नि उठने लगे तो अन्य किस पदार्थ से उसकी शांति हो सकती है।) (20) साधोः शीतलशीतलस्य तापनं न हि शान्तये। गाढतप्तो दहत्येव तोयात्मा विकृतिं गतः॥ (20/37)
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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