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________________ सूरसागर में यह तत्त्व प्रचुरता के साथ मिलता है। कवि की अलंकार योजना, छन्दोयोजना, रस योजना एवं वाविदग्धता इत्यादि का हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं जिसमें वे पद भाव की समृद्धि करते एवं कला के कलेवर को सुसज्जित करते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार सूरसागर के काव्य रूप का विवेचन करने पर यह स्पष्ट होता है कि उसमें प्रबन्धात्मकता की स्पष्ट झलक एवं कहीं-कहीं पर पदों की पूर्वापर-सापेक्षता भी मिलती है, तथापि इसे प्रबन्ध काव्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें न तो कथा की व्यापकता है तथा न ही क्रम होकर विविध लीलाओं का ही परिणाम है। भागवत के स्कन्धात्मक रूप का अनुसरण करने के कारण हमें इसमें प्रबन्धात्मक स्वरूप दिखाई देता है। इसके विपरीत सूरसागर में पुक्तक काव्य के समस्त आवश्यक गुण विद्यमान हैं, उनका इसमें पूर्ण रूपेण निर्वाह हुआ है। अतः सूरसागर को प्रबन्धात्मक मुक्तक काव्य मानना ही समुचित है। दूसरे शब्दों में इसे स्कन्धात्मक मुक्तक काव्य भी कह सकते हैं। निष्कर्ष : जिनसेनाचार्य का हरिवंशपुराण पौराणिक महाकाव्य है जिसमें विषयवस्तु का प्रारम्भ पौराणिक ढंग के आख्यानों को लेकर हुआ है। आधिकारिक कथा तो बाद में आती है। जबकि सूरसागर प्रबन्धात्मक मुक्तक काव्य है जिसके निरूपण में महाकवि सूर पूर्ण रूप से सफल रहे हैं। दोनों काव्य ग्रन्थों का अलग-अलग स्वरूप है, दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं। - जहाँ तक इनके कथानक की गतिशीलता का प्रश्न है तो हरिवंशपुराण की गतिशीलता मन्द है। उसमें मार्मिक प्रसंगों की पहचान नहीं है। कवि प्रत्येक प्रसंग के आगे-पीछे जैन धर्म के स्पष्ट या मूक सन्देश देने में लगा रहता है, अतः इसकी गतिशीलता शिथिल हो गई है। जबकि सूरसागर में मार्मिक प्रसंगों की भरमार है, कवि वहाँ से हटना ही नहीं चाहता। जिन प्रसंगों का भाव पूर्ण चित्रण करना है उसे जी भरके चित्रित करता है। . चरित्र वर्णनों में हरिवंशपुराण का महाकाव्यत्व स्वरूप होने के कारण वह सूरसागर से बहुत आगे है। वह प्रत्येक क्षेत्र का सांगोपांग वर्णन देता है। इतना ही नहीं, सूरसागर तथा हरिवंशपुराण की कथा वस्तु में साम्य भी है तथा वैषम्य भी। दोनों ग्रन्थों में अनेक प्रासंगिक कथाएँ है परन्तु हरिवंश के उपाख्यान कहीं-कहीं पाठकों को मुख्य कथा से दूर ले जाते हैं, जबकि सूरसागर में ऐसा नहीं है। इतना होने के बावजूद भी दोनों कवियों का क्षेत्र, काव्य-परम्परा, तत्कालीन परिस्थितियाँ, भाषा एवं काव्य पद्धति भिन्न होने के कारण दोनों कृतियों का काव्यरूप भी 209 - -
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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