________________ हरिवंशपुराण :(क) अथ विरुदवलिज्यारूढबाणासनायां कलरवकलहंसीशंखशय्याश्रितायाम्। रिपुशिखिमदपक्षक्षोदपक्षोदयायां शरदि हरिनवश्रीलीलयाध्यासितायाम्॥ (36/1) (ख) विलंघतक्ष्माभृतमनशैलगं मृगांकलेखांकुशदंष्ट्रमायतम्।। दिगन्तविश्रान्तनिनादमाविशत्शरत्पयोदाभमिभारिमैक्षत॥ (37/8) सूरसागर :(क) अब 3 राखि लेहु भगवान्। हौं अनाथ बैठयौ गुम-डरियौ पारधि साधे बान॥(पद सं० 97) (ख) सखी इन नैननि तै धन हरि। बिनहीं रितु बरसत निसि बारस सदामलिन दोउ तारे॥(पद सं० 3843) तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो दोनों काव्य-ग्रन्थ इस अलंकार से भरे पड़े हैं। दोनों ही कवियों ने अनेक रूपकों को प्रस्तुत कर अपनी कल्पना के द्वारा साधारण तथा असाधारण प्रत्येक स्थल की सामग्री एकत्रित की है। परन्तु उनका वक्र-प्रयोग असंगत प्रतीत होता है। हरिवंशपुराण में अपेक्षाकृत कुछ ऐसे स्थल अधिक मिलते हैं जिनमें कल्पना की अतिरंजना रसोत्कर्ष में सहायक नहीं होती। उत्प्रेक्षालंकार :- . .. जहाँ उपमान में ही उपमेय की सम्भावना या कल्पना की जाय, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यह अलंकार कवि की मार्मिक अभिव्यंजना एवं काव्य-शक्ति का * परिचायक है। इस अलंकार के निरूपण में दोनों कवियों को पर्याप्त सफलता मिली है। कुछ उदाहरण देखियेहरिवंशपुराण :- . (क) प्रमदमुरुमुवाह श्रीमुखाम्भोजलक्ष्मी . हरिरिव गुरुभूभृद्भरिरक्षासनाथः॥ (36/25) (ख) विपाण्डरपयोधरां दिवमखण्डचन्द्राननां निशि, स्फुरिततारकानिकरमण्डनां हारिणीम्॥ (38/11) सूरसागर :(क) प्रथमहिं सुभग स्याम बेनी की, सोभा कहाँ बिचारि। मनौ रह्यौ पनग पीवन कौं ससि मुख सुधा निहारी॥ सुभग सुदेस सीर सेद्र कौं देखि रही पचिहारी। मानौ अरुन किरन दिनकर की, पसरी तिमिर बिडारी॥(पद सं० 2732)