________________ की अपेक्षा अर्थालंकारों का अधिक महत्त्व माना जाता है। अग्निपुराणकार ने तो सरस्वती को भी अर्थालंकार के अभाव में विधवा घोषित किया है।१८ हो सकता है, यह अत्युक्ति हो, तथापि काव्य में अर्थालंकारों के अतिशय महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सूरसागर तथा हरिवंशपुराण दोनों ही काव्य-ग्रन्थों में अर्थालंकारों की विपुलता है। इनमें उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सादृश्यमूलक का प्रमाण तो सर्वाधिक है। (1) उपमालंकार : ___ जहाँ भिन्न-भिन्न वस्तुओं का साधारण धर्मों द्वारा सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहाँ उपमालंकार होता है। हरिवंशपुराण तो मानो उपमा का सागर है। कवि ने अनेक उपमाओं का सहारा लेकर इस ग्रन्थ की काव्य-शोभा बढ़ाई है। जिनसेनाचार्य ने एक से एक बढ़कर उपमाएँ दी हैं, जिनके उदाहरण दिये जा सकते हैं परन्तु हम यहाँ कुछ संकेत ही करेंगे। सहृदय जनों को उपमाओं का वास्तविक आनन्द तो इस कृति को पढ़ने पर ही मिल सकेगा। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं(क) मृदुतरंगघने शयनस्थले मृदितपुष्पचये शयितोत्थितः। सह बभौ प्रियया सुमुखो यथा समदहंसयुवा सिकतास्थले॥११९ . (ख) स्वतनुवृद्धिमतश्च शनैः शनैः सह कलाभिरिदं च दिने दिने। शशिवपुर्यदियाय यथा यथा स्वजनमुजलधिश्च तथा तथा॥(१५/३१) सूरसागर :(क) पिय तेरे बस यौं री माई। ज्यौं सँगहि संग छाह देह-बस कहयौ नहिं जाई॥(पद सं० 2627) (ख) चुकिर कोमल कुटिलाराज़त रुचिर विमल कंपोल। नील नलिन सुगंध ज्यौं रस चकित मधुकर लोला॥(पद सं० 2838) तौलनिक दृष्टि से देखा जाय तो दोनों ग्रन्थों में यह अलंकार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। इस अलंकार की प्रस्तुति में सूरसागर में जितनी सरलता एवं स्वाभाविकता है वैसी हरिवंशपुराण में नहीं। हरिवंशपुराण की भाषा संस्कृत होने के कारण भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह प्रस्तुतिकरण दुरूह लग रहा है जबकि सूरसागर में मार्मिक भावाभिव्यंजना है। (2) रूपक : उपमेय और उपमान को जहाँ एक-रूप कह दिया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है। दोनों कृतिकारों ने इस अलंकार का सफल प्रयोग किया है। कहीं-कहीं यह अलंकार अर्थ की दृष्टि से जटिल व नीरस बन गया है परन्तु कवि की कल्पनाविस्तार क्षमता का यह सुन्दर परिचायक है। दोनों ग्रन्थों में प्रयुक्त रूपक अलंकार के कुछ उदाहरण दृष्टव्य है