________________ सूरसागर में वीप्सा का उपयोग भाव के उच्छलन के सहज रूप में हुआ है। किन्तु अलंकरण के लिए वीप्सा का सचेष्ट प्रयोग नहीं है। जैसे(क) मुरि-मुरि चितवानि नंद गली। बार-बार मोहन मुख कारन आवति फिर-फिर संग अली।१२ (ख) उमंगि-उमंगि प्रभु भुजा पसारत हरषि जसोमति अंकम भरनी।११३ (6) पुनरुक्ति अलंकार :. वीप्सा में पुनरुक्ति होती है किन्तु शब्द केवल दो बार ही प्रयुक्त होता है, पुनरुक्ति प्रकाश में पुनरुक्ति अनेक बार होती है। पुनरुक्ति काव्य का एक दोष है जब पुनरुक्ति ही रुचिता का कारण बनती है तो अलंकार बन जाती है।१४ इसके मनोरम उदाहरण दोनों ही कृतियों में यत्र-तत्र मिलते हैं। जैसे हरिवंशपुराण(क) चन्द्रश्चापि महाचन्द्रस्तथा चन्द्रधरश्रुतिः। सिंहचन्द्रो हरिचन्द्रः श्रीचन्द्रः पूर्णचन्द्रकः॥ सुचन्द्रो बालचन्द्रश्च नवैते चन्द्रसप्रभाः। बलाः प्रतिद्विषश्चान्ये नव श्रीहरिकण्ठकौ॥११५ (ख) कनत्कनकसंकाशः कनकः कनकप्रभः। त्रयः कनकपूर्वाः स्युस्ते राजध्वजपुंगवाः॥१६ सूरसागर : - सुन्दर स्याम, सखी सब सुन्दर, सुन्दर वेष धर गोपाल। सुन्दर पथ, सुन्दर-गति आवन, सुन्दर मुरली शब्द रसाल॥ सुन्दर लोग, सफल ब्रज सुन्दर, सुन्दर हलधर सुन्दर भाल। सुन्दर वचन बिलोकनि सुन्दर, सुन्दर गुन सुन्दर वनमाल॥ सुन्दर गोप, गाइ अति सुन्दर, सुन्दरि-गन करति विचार। सूर स्याम संग सब सुन्दर, सुन्दर भक्त-हेत अवतार॥१७ * हरिवंशपुराण के उपर्युक्त श्लोकों में "चन्द्र" तथा "कनक" शब्द की पुनरुक्ति है तो सूर के इस पद में "सुन्दर" शब्द की पुनरुक्ति का सौन्दर्य है। ये आवृत्तियाँ भाषासौष्ठव एवं भावोत्कर्ष में सहायक हुई है। . उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि शब्दालंकार-योजना दोनों ग्रन्थों की भावराशि को समृद्ध करती है। हरिवंशपुराण की अपेक्षा सूरसागर के शब्दालंकार चमत्कारपूर्ण, भावोत्कर्ष सफल व सरस बन पड़े हैं। (ख) अर्थालंकार :जो अलंकार अर्थ पर आश्रित होते हैं, उन्हें अर्थालंकार कहते हैं। काव्य में शब्दालंकारों 287