________________ तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे कुटिल भँवारे। कमलनैन को कौन चलावे, सबहिनि मैं मनियारे॥१०७ वक्रोक्ति-अलंकार के चित्रण में भी सूरसागर हरिवंशपुराण से अत्यधिक आगे है। सूर का यह विधान स्वाभाविक एवं भावप्रवण है जो काव्य को सरस, सजीव और रमणीय बनाने की पूर्ण क्षमता रखता है। श्लेष-अलंकार : जहाँ श्लिष्ट शब्दों से अनेक अर्थों को ध्वनित किया जाता है, वहाँ श्लेष अलंकार होता है। जिनसेनाचार्य ने इस अलंकार को भी प्रयुक्त किया है। यथा- .. परैर्घटितमप्यतो विघटयन् पदार्थ झटित्युपेत्य .. घटयन्पटुर्विघटितं समर्थक्रियः। परं भुवनचक्षुरुज्ज्वलमनिद्रमभ्युद्ययौ यथा जिनवचःपथो विधिरिवाऽथ वा भानुमान्॥१०८ सूरसागर में प्रयुक्त श्लेष अलंकार का एक उदाहरण देखिये लेहु गोरस-दान मोहन कहाँ रेह छपाउ। उरनि तुम्हरै जाति नाहीं लेत दह्यो छड़ाइ॥१०९ सूर की इन पंक्तियों में "गोरस" शब्द श्लिष्ट है। इसके दो अर्थ हैं दही और इन्द्रियों का आनन्द। इस श्लिष्ट प्रयोग से उक्ति का वैचित्र्य बढ़ गया है। प्रत्यक्षतः तो कोई गोपी कृष्ण को दही के लिए आमंत्रित कर रही है, किन्तु परोक्ष रूप से उसका भाव इन्द्रियों के आनन्द से ही है। (5) वीप्सा-अलंकार : मनोभावों को प्रकट करने के लिए जहाँ शब्दों अथवा पदों पर विशेष बल दिया जाता है, उसे वीप्सा अलंकार कहते हैं। सूरसागर तथा हरिवंशपुराण में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। हरिवंशपुराण(क) विजयस्व महादेव! विजयस्व महेश्वर। विजयस्व महाबाहो! विजयस्व महेक्षण॥११० , (ख) कामकरीन्द्रमृगेन्द्र नमस्ते क्रोधमहाहिविराज नमस्ते। मानमहीधरवन नमस्ते लोभमहावनदाव नमस्ते॥ ईश्वरताधरधीर नमस्ते विष्णुतया युत देव नमस्ते। अर्हदचिन्त्यपदेश नमस्ते ब्रह्मपदप्रतिबन्ध नमस्ते॥११०