________________ (ख) वृत्त्यनुप्रास स्नेहोऽपत्यकृतोऽमीषु भवत्याः समभूदतः। धर्मचारिषु सर्वेषु स्नेहः किमुत सूनुषु॥१०३ (ग) द्वीपेऽत्रैरावतक्षेत्रे पुरे विजयपूर्वके। बन्धुषेणस्य भूपस्य बन्धुमत्याः सुताभवत्॥१०४ कवि शिरोमणि सूर ने भी अनुप्रास अलंकार का सुन्दरतापूर्ण चित्रण किया है। उनका एक उदाहरण द्रष्टव्य है झहरात झहरात (दवा) नल आयौ। घेरि चहुँ ओर करि सोर अन्दोर वन, धरनि आकास चहुँपास छायौ। बरत बन बाँस परहत कस काँस जरि उड़त है माँस अति प्रबल धायौ। झपटि झटपट लपट फूल फल चर-पटकि फटक लटलटकि द्रुम मन वायो॥ अति आगिनि झार, भंभार धुंधार करि उचरि अंगार झंझार छायौ। बरत बन पात झहरात झहरात अतरात तरुमहा धरनी गिरायौ॥१०५ सूरसागर में प्रयुक्त अनुप्रास अलंकार हरिवंशपुराण की अपेक्षा अधिक सजीव बन गया है। उपर्युक्त पद के दावानल-वर्णन में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो आँखों के सामने अग्नि फैलकर उसे नृष्ट-भ्रष्ट कर रही है। वक्रोक्ति : * किसी के कहे हुए वाक्य का किसी अन्य व्यक्ति द्वारा श्लेष से यदि कोई अन्य अर्थ निकाला जाय तो उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते हैं। हरिवंशपुराण में इस अलंकार का प्रयोग यत्र-तत्र मिलता है परन्तु यह स्वल्प मात्रा में है। हरिवंशपुराण के वक्रोक्ति का एक उदाहरण देखिये सपदिमुक्तजलाम्बरपीलने स्फुटकटाक्षगुणेन विलासिना। मधुरिपुस्थिरगौरवभूमिकामतुलजाम्बवतीं समनोदयत्॥ कृतककोपविकारकटाक्षिणी सललितभू विलोक्य तु चक्षुषा। विभुमुवाच वचः पथपण्डिता त्वरितजाम्बवती स्फुटिताधरा॥१०६ सूरसागर : महाकवि सूर ने उद्धव-गोपी संवाद में वक्रोति का सफल एवं सुन्दर प्रयोग किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। गोपियों द्वारा ज्ञान मार्ग का खण्डन इसी अलंकार से होता है। .. (1) बिलग जानि मानौ उधौ कारे। वह मथुरा काजर की ओबरी जे आवै ते कारे॥ 285 ... विनु