________________ (ख) हरि कर राजत माखन-रोटी। मनु वारिज ससि बैर जरनि, जिय, गयो सुधा संसु धौटी॥ मेली सजि मुख-अम्बुज भीतर उपजी उपमा मोटी। मनु बारह भूधर-सह-पहुमी धरी दसन की लोटी॥(पद सं० 782) इस प्रकार दोनों कवियों ने सम्पन्न रूप से रूप, अंग, चेष्टा आदि के वर्णन में उत्प्रेक्षाओं का उल्लेख किया है। सूरसागर में अनेक उत्प्रेक्षण साधन दिखाई देते हैं, जो कवि की मौलिक उद्भावना पर आधारित हैं। उपर्युक्त उदाहरणों में जिनसेन ने मुख को खिले-कमल तथा पूर्ण-चन्द्र की उत्प्रेक्षा प्रदान की है जबकि सूर ने श्री कृष्ण के वेणी की नाग से एवं उनकी कुलरी (टोपी) की बादल के ऊपर इन्द्रधनुष से उत्प्रेक्षा दी है। यहाँ जिनसेन की अपेक्षा सूरदास की कल्पना अति सूक्ष्म एवं ऊहात्मक बनी है किन्तु जिनसेन की कल्पना भी न्यून नहीं है। इतना होने पर भी सूर की वह पौराणिक उत्प्रेक्षा अद्वितीय है जिसमें माखन-रोटी आरोगते कृष्ण को डाढ़ पर पृथ्वी धारण किए हुए भगवान् वराह से उत्प्रेक्षित किया गया है। (5) अतिशयोक्ति : किसी वस्तु का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाता है वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। हरिवंशपुराण में निरूपित अतिशयोक्ति के कुछ उदाहरण देखिये(क) विलम्बितसहस्रार्कयुगपत्यतनोदयैः, नमतान्नन्दितालोकनामोन्नामैः पदे पदे॥ सुराणां भूतल स्पर्शिमकुटैर्बहुकोटिभिः। भूः पुरः सोपहारेव शोभतोऽम्बुजकोटिभिः॥(५९/२४-२५) (ख) सुरेभवदनत्रिके दशगुणे द्वयोश्चाष्ट ते रदाः प्रतिरदं सर: सरसी पद्मिनी तत्र च।. भवन्ति मुखसंख्यया सहितपद्मपत्राण्यपि प्रशस्तरसभाविता प्रतिदलंनटत्यप्सराः॥ (38/43) इन श्लोकों में जिनसेनाचार्य की अतिशयोक्ति देखते ही बनती है। प्रथम श्लोक में उन्होंने करोड़ों मुकुटों का प्रकाश, हजारों सूर्यों के समान बतलाया है। जबकि द्वितीय श्लोक में ऐरावत हाथी का वर्णन है कि उसके बत्तीस मुख थे व प्रत्येक मुख में आठआठ दाँत थे। प्रत्येक दाँत पर एक-एक सरोवर एवं प्रत्येक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी। एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस पत्र थे तथा प्रत्येक पत्र पर उत्तम-रस से भरी हुई एक-एक अप्सरा नृत्य कर रही थी। सूरसागर में भी अतिशयोक्ति-अलंकार प्रचुरता के साथ प्रयुक्त हुआ है। एक उदाहरण दृष्टव्य है