________________ सार, दोहकीय + सार, रोला + उल्लाला, दोहनीय + सरसी + सार, दोहा + सोरठा + चौपाई + हरिगीतिका, दोहा + शशिवदना + माली + सखी + गीतिका। अर्द्धसम और अर्द्धसम के मिश्रण से बने छन्द :-दोहा + दोहकीय। ... (4) वर्ण छन्द : मिताक्षरी, नागर, गोरस, सूरघनाक्षरी, मनहरण, रूपघनाक्षरी, जलहरण। उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने मात्रिक एवं उसके मिश्रण से बने मिश्र छन्दों का प्रयोग सर्वाधिक किया है। इसका कारण यह है कि उनका साहित्य गेय था। संगीतात्मकता की स्वाभाविकता व प्रभविष्णुता से ये छन्द सफल सिद्ध हुए हैं। सूरसागर में प्रयुक्त पद्धतियाँ : सूरदास के पूर्व हिन्दी में छन्द रचना की चार पद्धतियाँ प्रचलित थी। कवि ने पूर्ववर्ती पद्धतियों का अपनी कृति में सफलता पूर्वक निर्वाह किया है। (1) दोहा पद्धति : दोहा मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इसके प्रथम व तृतीय चरण में 13-13 एवं द्वितीय व चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सूर ने वर्णनात्मक प्रसंगों में इसका सफल प्रयोग किया है परन्तु अपनी काव्य प्रतिभा व संगीतकला के बल पर इसे अनेक नवीनताएँ भी प्रदान की है। सूरसागर में दोहे के अनेक रूप मिलते हैं। दानलीला प्रसंग की दो पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं जिसमें इन्होंने दोहे के अन्त में 9 अथवा 10 मात्राओं की एक लघु पंक्ति जोड़कर, अपेक्षाकृत अधिक गेयता प्रदान की है इहिं मारग गोरस लै सबै, नित्य प्रति आवहिं जाहिं। हमहिँ छाप दिखरावहूँ, दान किहिं पाहिं॥ कहति ब्रज लाडिली। (2) छप्पय पद्धति : छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। इसके छः चरण होते हैं, जिसमें प्रथम चार पद रोळा छन्द तथा अंतिम दो पद उल्लाला छन्द में होते हैं। यह छन्द वीरगाथाकाल में ओजस्वी भावों की अभिव्यक्ति का साधन था। सूरसागर में इसका अभाव रहा है, फिर भी विनय के पदों में एक छप्पय द्रष्टव्य है तब विलम्ब नहिं कियौ, जबै हिरनाकुस मार्यो। तब विलम्ब नहिं कियौ, केस गहि कंस पछारयौ॥ तब विलम्ब नहिं कियौ, सीस दस रावन कट्टे। तब विलम्ब नहिं कियौ, सबै दानव दह पट्टे॥' -