________________ (17) स्रग्धरा-(प्रश्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्) इत्थं कृत्वा समर्थं भवजलधिजलोत्तारणे भावतीर्थं। कल्पान्तस्थायि भूयस्त्रिभुवनहितकृत् क्षेत्रतीर्थं स कर्तुम्। स्वाभाव्यादारुरोह श्रमणगणसुरक्र.संपूज्यपादः कैलासाख्यं महीधं निषधमिव वृषादित्य इद्धप्रभाढ्यः // 1 (18) द्रुतविलम्बित—(द्रुतविलम्बितमाह न भौ भरो) अथविबुद्धसरोजवनस्पृशा सुरभिणा स्पृश्ता मरुता तदा। हृतवपुः श्रमकं मिथुनं मिथस्तदकरोदुपगूढमतिथूथम्॥२ (19) तोटक–(वद तोटकमम्बुधिसैः प्रथितम्) यतयात्मधिया जितनात्मभुवं भुवभव्यतरां सुखसस्यभृताम्। भृतविश्व! भवन्तमनन्तगुणं गुणकांक्षितया वयमीश नताः॥२ . (20) हरिणी-(रसयुगहयैर्सी भ्रौ स्लौ गो यदा हरिणी तदा) प्रतिदधिमुखं चत्वारस्ते निरस्तमनोमलाः प्रतिरतिकरं चाष्टौ यत्र ह्यपोषितवासराः। प्रतिदिशमथो षष्ठं कार्यं तथाञ्जनकान्प्रति व्रतविधिरयं श्रेष्ठो नन्दीश्वरो जिनचक्रिकृत्॥ (21) नर्कुट–(हयदशाभिर्नजौ भजजला गुरु नर्कुटकम्) अकठिनकम्बुकण्ठचिबुकापरबिम्बफलप्रहसितपाण्डुगण्डकुटिलभुललाटतटी द्विगुणितकोमलोत्पलसुनालसुकर्णभृता चिरमनयात्यभासि धवलासितदीर्घदृशा॥ __उपर्युक्त विवेचनानुसार यह स्पष्ट है कि जिनसेनाचार्य का "छंदोविधान" उनकी भावाभिव्यक्ति का सशक्त साधन है। इन्होंने अपनी कृति में शीर्षस्थ छन्द के रूप में अनुष्ट प् को ही रखा है परन्तु अन्य छन्दों का भी सफल प्रयोग कर अपने महाकवित्व को असंदिग्ध-भाव से प्रकट किया है। सम्पूर्ण कृति जो 66 सर्गों में विभक्त है, इसमें लगभग 9000 छन्द प्रयुक्त हुए हैं। कवि ने चौंतीस एवं उनतालीसवें सर्ग में विशिष्ट छन्दों का प्रयोग किया है। छन्दों की दृष्टि से हरिवंशपुराण के कई सर्ग बहुत बड़े हो गये हैं। उदाहरणार्थ मात्र साठवें सर्ग में 574 छन्दों का प्रयोग हुआ है। कवि ने विविध छन्दों को प्रयुक्त कर कृति में संगीतात्मकता के साथ सरसता प्रदान की है जो स्वाभाविक एवं भावानुकूल है। यहाँ मात्र छन्दों के प्रयोग की बात की गयी है परन्तु विविध छन्दों का रसास्वादन कृति को पढ़ने पर ही प्राप्त हो सकता है।