________________ वायव्यं व्यमुचच्छस्त्रमस्त्रविन्मगधेश्वर. अन्तरिक्षेण वास्त्रेण व्याक्षिपत्तदधोक्षजः॥ अग्निसात्करणे सक्तमस्त्रमानेयमुज्ज्वलम्। मागधक्षिप्तमाक्षिप्तं वारुणास्त्रेण शौरिणा। अस्त्रं वैरोचनं मुक्तं मागधेन्द्रेण रोषिणा। उपेन्द्रेणापि तद्दूरान्माहेन्द्रास्त्रेण दारितम्।२६ श्री कृष्ण व जरासंध ही नहीं, युद्ध में लड़ रहे सभी व्यक्ति वीरता के पुतले दिखाई देते हैं। युद्धों के वर्णन में उभयपक्ष की वीरता के अनुपम नमूने जिनसेनाचार्य ने प्रस्तुत किये हैं। महाकवि सूर ने भी वीर रस के भावों की यत्र-तत्र अभिव्यक्ति की है। भीष्म-प्रतिज्ञा से सम्बद्ध पदों में यही भाव परिलक्षित होता है। भीष्म पितामह रणभूमि में कृष्ण की शस्त्र-ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा भंग कराने का निश्चय करते हुए कवि के शब्दों में कह रहे हैं कि आजु जो हरि हि न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गंगा जननी को, सांतनु सुत न कहाऊँ। स्यंदन खंडि महारथि खंडौं, कपिध्वज सहित गिराऊँ। पांडव दल सन्मुख द्वै धाऊं सरिता रुधिर बहाऊँ॥२७ हरिवंशपुराण की अपेक्षा सूरसागर में वीर रस के भावों का चित्रण अपेक्षाकृत कम है। पुराणकार ने युद्ध-स्थलों के विस्तृत एवं अद्भुत दृश्यों में वीर रस का सुन्दर चित्रण किया है, जिसमें वीरता की चेष्टाओं का सफल प्रदर्शन है। भयानक : हरिवंशपुराण तथा सूरसागर में भयानक रस की अभिव्यक्ति अनेक स्थलों पर हुई है। महाकवि जिनसेनाचार्य ने श्री कृष्ण की युद्ध वीरता का बहुत ही विशुद्ध निरूपण किया है। वीर रस का स्थाई भाव उत्साह है तथा उसके सहयोगी भाव रौद्र एवं भयानक हैं। वीरता के इस वर्णन में यथास्थान भयानक रस का समावेश भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। श्री कृष्ण के अलौकिक लीला-वर्णन में अपराजित, शिशुपाल तथा जरासंध वध प्रसंगों में इस रस की सुन्दर अभिव्यक्ति है। यथा_____ बालकृष्ण को मारने के लिए कंस ने एक पिशाची भेजी। उसका रूप भयंकर था। उसका मुख, नेत्र दोनों अरूक्ष थे। वह जोर-जोर से अट्टहास्य कर रही थी जिससे भय लग रहा था स ताडवीं स्पष्टकृताट्टहासां कुराक्षसी रूक्षनिरीक्षणास्याम्। अधोक्षजो वीक्ष्य विवृद्धकायां शरीरयष्टयां विकृतां जघान॥३८ -