________________ ततः स्वयं जरासंधः कृष्णस्याभिमुखं रुषा। दधाव धनुरास्फाल्य रथस्थो रथवर्तिनः॥ अन्योन्याक्षेपिणोयुद्धं तयोरुद्धतवीर्ययोः। अस्त्रेः स्वाभाविकैर्दिव्यैरभूदत्यन्तभीषणम्॥ अस्त्रं नागसहस्राणां सृष्टप्रज्ज्वलनप्रभम्। माधवस्य वधायासौ क्षिप्रं चिक्षेप मागधः॥ अमूढमानसः शौरि गनाशाय गारुडम्। अस्त्रं चिक्षेप तेनाशु ग्रस्तं नागास्त्रमग्रतः॥४ इसके अलावा भी युद्ध-वर्णन के अनेक प्रसंगों में इस रस की अभिव्यक्ति हुई है। सूरसागर : श्री कृष्ण द्वारा गिरिधारण लीला प्रसंग में महाकवि सूर ने इस रस के भावों की अभिव्यंजना की है। कृष्ण के कथनानुसार ब्रजवासियों ने इन्द्र की पूजा का त्याग कर गोवर्द्धन की पूजा की। इन्द्र ने ब्रजवासियों की धृष्टता का बदला लेने का निश्चय किया। उसने क्रोध में होकर अपना आवेश निम्न शब्दों में प्रकट किया प्रथमहिं देऊ गिरिहिं बहाई।। ब्रज धातनि करों चुरकुट, देऊँ धरनि मिलाई॥ मेरी इन महिमा न जानी प्रगट देऊँ दिखाई। बरसि जल ब्रज धौइ डारों लोग देऊँ बहाई // 35 उपर्युक्त विवेचनानुसार सूरसागर में रौद्र रस के भाव युक्त पद स्वल्पमात्रा में मिलते हैं. क्योंकि उन्हें तो श्री कृष्ण का मनोहर स्वरूप ही प्रिय है। हरिवंशपुराण में इस रस की निष्पत्ति के अनेक प्रसंग है। श्री कृष्ण के पराक्रम में उनके शलाकांपुरुष स्वरूप में तथा अनेक युद्ध प्रसंगों में इस रस के भावों का सुन्दर चित्रण हुआ है। वीर-रस : * 'हरिवंशपुराण के युद्ध वर्णनों में रौद्र रस की भांति वीर रस की भी सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। हरिवंशपुराण में युद्ध के पर्याप्त चित्रण हैं। यथा(१) कृष्ण - अपराजित युद्ध, (2) कृष्ण - शिशुपाल युद्ध, (3) कृष्ण - जरासंध युद्ध, (4) प्रद्युम्न - कालसंवर युद्ध, (5) प्रद्युम्न - कृष्ण युद्ध आदि। ... इन युद्धों के वर्णन में कवि ने वीरों की चेष्टाओं से वीर रस की अजस्र-धाराएँ प्रवाहित की हैं। श्री कृष्ण-जरासंध युद्ध का एक प्रसंग द्रष्टव्य है जिसमें दोनों वीर एकदूसरे को मारने में उद्यत हो रहे हैं, उन्हें मौत से भय नहीं है