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________________ हमको विधि ब्रजवधू न कीन्हीं कहाँ अमरपुर बास भए। . बार-बार पछिताती यहे कहि सुख होतो हरि-संग रहैं // 16 इतना नहीं "रास" को देखने के लिए सभी देवी-देवता अपने-अपने विमानों में बैठकर गोकुल आए। उन्होंने ब्रजवासी, ब्रजबाला, ब्रज की धरा, ताल-विताल, वंशीवट, यमुना तट इत्यादि को धन्य कह उन पर पुष्प वृष्टि की। ___रास के आनन्द हेतु वैकुण्ठपति नारायण भी लालायित हैं। गोकुल में हो रही रास की ध्वनि वैकुण्ठ तक पहुँची। नारायण भी लक्ष्मी के साथ वैकुण्ठ से गोकुल में आये। उन्होंने श्री कृष्ण की रासक्रीड़ा को निर्निमेष दृष्टि से देखा तथा कहा कि ऐसा सुख / त्रिभुवन में कहीं नहीं है। मुरली धुनि वैकुण्ठ गई नारायण-कमला सुनि दंपति, अति रुचि हृदय भई। सूर निरखि नारायण एक-टक, भूले नैन निमेष।११७ ... इतना ही नहीं रास के अखंड, अपार, अनुपम, अद्भुत आनन्द को देखकर समस्त सुर, किन्नर, मुनि, नारद, शिव इत्यादि "रास लीला धाम" वृन्दावन को तथा अद्भुत रास रसेश्वर श्री कृष्ण को धन्य कह रहे हैं। सूर ने अपने समस्त काव्य में इस बात पर सर्वाधिक बल दिया है कि भगवान् कृष्ण का आनन्द स्वरूप प्रेम पर ही आधारित है। उनके अनुसार भगवान ने क्रीड़ा के लिए सृष्टि का परिणमन किया है तथा आनन्द-क्रीड़ा की चरम-परिणति रास-क्रीड़ा है। भू-लोक की रास-क्रीड़ा नित्य वैकुण्ठ ब्रजधाम के नित्य-रास का अवतीर्ण रूप है। यह रास-लीला प्रतीकात्मक अर्थ में निरूपित है जिसका अनेक विद्वानों ने अपने-अपने मतानुसार अर्थघटन किया है। रास का प्रतीकात्मक अर्थ : - रास-लीला के प्रतीकार्थ के सम्बन्ध में दार्शनिक ग्रन्थो में बहुत ही विस्तार से वर्णन मिलता है। यह ब्रह्मानन्द से उत्कृष्ट और भजनानन्द की संज्ञा से सुशोभित की गई है। भागवत की रास पंचाध्यायी को भागवत के पाँच प्राण मानते हैं। गोपियों को वल्लभाचार्य ने सिद्धि-स्वरूपा शक्तियों के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके साथ क्रीड़ा करना भगवान् का अपरोक्ष भोग कहा गया है। गोपियों का परिवार व समाज- व्यवहार का त्याग करना, उनके धर्म, अर्थ, काम का परित्याग है। भगवान् के रमण रूपी फल को प्राप्त करने के लिए विवेक तथा वैराग्य साधनों की सिद्धता आवश्यक है। गोपियों ने अपने गृह-व्यवहारों का त्याग कर इन्हीं विवेक और वैराग्य साधनों को सिद्ध किया।१८
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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