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________________ विषयानन्द का आलम्बन क्षणिक है अतः यह नश्वर है। ब्रह्मानन्द रस के विभावादि उपकरण भगवान् स्वयं होते हैं अतः यह सर्वोत्तम रस माना जाता है। इससे भी श्रेष्ठ भगवान् कृष्य को विभाव मानकर उसके द्वारा जिस रस की उत्पत्ति होती है-वह "ब्रह्मरस" है। आचार्य वल्लभ ने इसे भजनानन्द कहा है / 112 इस प्रकार लौकिक विषयानन्द तथा काव्यरस से इतर रस रूप श्री कृष्ण (रसो वै सः) के संसर्ग से लीलाओं में जो रस समूह मिले वह रास है तथा यह रस-समूह गोपी-कृष्ण की शरद् रात्रि की लीला में अपने पूर्ण रूप में स्थित बताया गया है।११३ डॉ० गुप्ता ने "रास" के तीन भेद बतलाए हैं(१) नित्य रास-नित्य गोलोक का रास। (2) अवतरित रास—(नैमित्तिक रास) कृष्णावतार का रास। (3) अनुकरणात्मक रास—अभिनयात्मक रास जो मानसिक एवं दैहिक रूपों में जो दो प्रकार का है। भक्ति के मुख्य चार भाव हैं-दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य / इन चारों भावों में माधुर्य भाव सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इस भाव की चरम आनन्दानुभूति रासरसानुभूति में ही होती है। शुद्धाद्वैत के प्रवर्तक वल्लभाचार्य के मतानुसार मधुर भाव के उपासक "पुष्टि-भक्त" को ही रास-लीला में प्रवेश रूप मोक्ष मिल सकता है। गोपी रूप में जीव का रसेश्वर श्री कृष्ण का मिलन ही पुष्टि-भक्त की चरम इच्छा होती है। सूरसागर में रास के आनन्द को ब्रह्मानन्द से भी विलक्षण रसानन्द बताया है। इसे देखकर सभी सुर-नर मोहित हो गये . तथा भगवान् शंकर की समाधि भी टूट गई। जो रस रासरंग हरि कीन्हौं, वेद नहीं ठहरान्यौ। सुर-नर मुनि मोहित भए सबही, सिवहु समाधि भुलान्यौ॥११४ सूरदास स्वीकार कर रहे हैं कि "रास" वर्णन के लिए जैसी बुद्धि तथा मन चाहिए, वह. मेरे पास नहीं है। जिस पर परम कृपालु भगवान् की कृपा होती है, वही इस रास रसानन्द को प्राप्त कर सकता है। भाव-पूर्ण भजने पर ही रास-रसानन्द की प्राप्ति सम्भव है। - रास रस रीति बरनि न आवै। कहाँ तेसी बुद्धि, कहाँ वह मन लह्यौ, कहाँ वह चिततिय भ्रम भूलावै। जो कहाँ कौन मानै जो निगम अगम, कृपा बिनु नहिं पारसहि पावै।११५ - रास-रसानन्द के दर्शन करके ब्रज की ललनाओं को भी ब्रजवधू न होने का . पश्चात्ताप होने लगा। वे कहने लगी कि विधि ने हमारे को इस "हरिसंग" सुख से क्यों वंचित रखा
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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