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________________ यथाजागोमहिष्यादिक्षीरीणां स्वस्वभावतः। माधुर्यादच्युतिस्तद्वत्कर्मणां प्रकृतिस्थितिः॥१०८ - (3) अनुभव बन्ध : अनुभव बन्ध का अर्थ है जिसमें कर्म करने की शक्ति हो। जैसे गाय, भैंस के दूध में रस विशेष तीव्र या मन्द आदि भाव से रहता है उसी प्रकार कर्म रूप पुद्गल भी सामर्थ्य विशेष तीव्र अथवा मन्द आदि भाव से रहता है। यही अनुभव-बन्ध है।०९ . (4) प्रदेश बन्ध :... कर्म शरीर के द्विगुण आदि अनन्त अव्ययों वाले स्कन्धों का अपने अव्ययों में प्रवेश कर जाना "प्रदेश बन्ध" कहलाता है। प्रकृति और प्रदेश-बन्ध योग के निमित्त से होते हैं जबकि स्थिति का अनुभव बन्ध कषाय के निमित्त से माने गये हैं।११० दोनों ही आलोच्य कृतियों में पुनर्जन्म की स्वीकृति होने के उपरान्त भी दृष्टि-भेद विचारणीय है। सूरसागर में जीव को पुनर्जन्म के चक्कर में घूमते हुए बतलाया है तथा उसकी मुक्ति भक्ति द्वारा ही सम्भव है। हरिवंशपुराण में न केवल पुनर्जन्म के चक्कर की बात कही है वरन् उसके अनेक कारण तथा भेद इत्यादि पर सविस्तार उल्लेख किया है। सूर ने मुख्यतः भक्ति पर विशेष बल दिया है परन्तु जिनसेन स्वामी ने मन की शुद्धि पर। वैसे सूर की भक्ति भी मन की शुद्धता के बिना सम्भव नहीं है। लेकिन जिनसेनाचार्य ने जैनदर्शनानुसार इस बात को अत्यधिक गहराई से उल्लेखित करने का सफल प्रयास किया है। इस प्रकार पुनर्जन्म के सम्बन्ध में इनका तात्त्विक भेद द्रष्टव्य है। जीव, आत्मा, मोक्ष, ब्रह्म, अवतारवाद तथा पुनर्जन्म इत्यादि तत्त्वों के विवेचन के बाद हम कुछ ऐसे तत्त्वों पर भी विचार करेंगे जो दोनों ग्रन्थों में बिल्कुल अलग पड़ते हैं। अर्थात् जिनका एक के सिवाय दूसरी कृति में लेश मात्र भी उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसे तत्त्वों में सूरसागर में वर्णित रासतत्त्व तथा हरिवंशपुराण में निरूपित स्याद्वाद या अनेकान्तवाद महत्त्वपूर्ण हैं। इन दो बिन्दुओं के विवेचन बिना हमारा दार्शनिक तत्त्वों का यह तुलनात्मक अध्ययन अधूरा लगेगा। "सूरसागर" में वर्णित "रास" शुद्धाद्वैत के मूलाधार पर निरूपित है, यह आध्यात्मिक एवं अलौकिकता से पूर्णरूपेण सम्बन्धित है। इसी प्रकार हरिवंशपुराण में वर्णित स्याद्वाद, जैन धर्म की नींव है। इसे जैन-दर्शन के मूल तत्त्वों में स्वीकार किया जाता है। अतः उनका उल्लेख करना भी प्रसंगोचित होगा। सूरसागर और रास : "रास" को आध्यात्मिक तथा अलौकिक रसावस्था से सम्बद्ध माना है। डॉ. दीनदयाल गुप्त ने "रस" (आनन्द) के तीन प्रकार बताये हैं—(१) लौकिक विषयानन्द, (2) अलौकिक ब्रह्मानन्द, (3) काव्यानन्द।११ यह नाम-रूपात्मक संसार काव्यानंद पर आधारित है अतः आध्यात्मिक दृष्टि से इसमें आनन्द की मात्रा स्वल्प रहती है। लौकिक -
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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