________________ थल जल जीव जीते जग, जीवन निरखे दुःखित भये देव। गुन अवगुन की समुझ की संका, परि आई यह टेव॥ इस प्रकार पुनर्जन्म के सिद्धान्तों को सूरसागर में पूर्ण रूप से स्वीकार किया है तथा उससे छुटकारे हेतु मनुष्य जन्म को ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है। जो उसे उसके छुटकारे पुण्य कर्मों के बाद प्राप्त होता है। इस जन्म में परमात्मा की भक्ति से वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। - हरिवंशपुराण में इसी तत्त्व की विवेचना कुछ दूसरे ढंग से मिलती है। पुनर्जन्म के सम्बन्ध में उसमें भी प्राणी को चौरासी लाख योनियों के चक्कर में घूमता हुआ निरूपित किया है। _ जब जीव अपने स्वरूप को भूलकर कर्म के बन्धन में पड़ता है, तो उसे बन्ध कहते हैं और यही बन्ध पुनर्जन्म है।०५ जीव का बार-बार जन्म लेना पुनर्जन्म कहलाता है तथा यह पुनर्जन्म कर्मों के अनुसार होता है। मनुष्य जन्म शुभ कर्मों की प्राप्ति है। जीव अविद्या तथा राग से संश्लिष्ट होता हुआ इस आवागमन के चक्कर में निरन्तर भ्रमण करता है परन्तु वैराग्य से शुद्ध होता हुआ पूर्णस्वभाव में स्थित हो सिद्ध हो जाता है। अविद्यारागसंक्लिष्टो बम्भ्रमीति भवार्णवे॥ विद्यावैराग्यशुद्धःसन् सिद्धयत्यविकलस्थितिः॥१०६ पुराणकार ने पुनर्जन्म का कारण कषाय चतुष्टय बताया है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय कहे गये हैं। मन की शुद्धि से कषाय दूर हो सकते हैं। मन की शुद्धि करने हेतु सदाचार, संयम, सद्भावना की जरूरत होती है। - पुराणानुसार बन्ध के चार भेद होते हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभव तथा प्रदेश-बन्ध। (1) प्रकृति बन्ध : प्रकृति का अर्थ स्वभाव से है। जैसे—नीम की प्रकृति तिक्त है। उसी प्रकार सभी कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृति नियत रूप से स्थित है। प्रकृति-बन्ध आठ प्रकार का होता है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय। जिनसेन स्वामी ने इन भेदों की भी सविस्तार चर्चा की है। (2) स्थिति बन्ध : इसका अर्थ है प्रकृति (स्वभाव) को न छोड़ना। जिस प्रकार गाय-भैंस आदि के दूध में निश्चित समय तक मीठास रहती है, उसी प्रकार कुछ समय तक कर्म की अपनी प्रकृति में स्थिर रहता है तथा निश्चित समय तक अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है-यही स्थिति-बन्ध है। .. - -