________________ कि पवित्र कर्म करने से अन्त:करण शुद्ध होता है तथा पाप-कर्म करने से दु:ख की प्राप्ति होती है। आलोच्य कृतियाँ-सूरसागर एवं हरिवंशपुराण दोनों में पाप-पुण्य तत्त्व पर विशद विश्लेषण मिलता है। दोनों ग्रन्थों में पुण्य पर जोर दिया गया है जो मानव के कल्याण हेतु सहायक है। सुख-दुःख को देने वाला कोई नहीं वरन् व्यक्ति का कर्म है।९३ कर्म के आधार पर ही फल की प्राप्ति होती है।४ सूर के मतानुसार जीव कर्म बन्धन में फँसकर अनेक योनियों में फिरता रहता है। वह कर्म तो करता है परन्तु अल्पज्ञानी तथा अल्पशक्तिमान होने के कारण वह अपने पुरुषार्थ पर नियंत्रण करना उसकी शक्ति के बाहर है। कर्मफल जीव के अधीन नहीं है भगवान् कर्म फल के दाता हैं। जो मनुष्य स्वयं को पुरुषार्थी मानता है, वह माया में पड़कर अहंकारी बन जाता है। धर्मपुत्र तू देखि विचार कारन करन है करतार नर के लिए कछु नहि होई, करता हरता आपहि सोई। ताको सुमिरि राज्य तुम करो, अहंकार चित्त ते परिहरौ। अहंकार किए लागत पाप, सूर स्याम भजि मिटे संताप॥५ मनुष्य दुष्कर्म करके अनेक जन्मों के चक्कर में भटकता रहता है परन्तु प्रभु भजन से उसे इस भव-बन्धन से छुटकारा मिल सकता है। - अविद्या माया के कारण जीव इन्द्रिय पदार्थ को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है, जिससे वह राग-द्वेष तथा दुःखों की प्राप्ति करता है एवं वह पाप कर्मों की ओर प्रेरित होता है। मनुष्य हरिभजन से ही अन्त:करण की शुद्धता को प्राप्त करता है, जो मोक्ष फलदायी है। किते दिन हरि भजन बिनु खोये। पर निंदा रसना रस करि केतिक जन्म बिगोये। तेल लगाइ कियो रुचि मर्दन बस्तर मलि मलि धोये। तिलक लगाउ चले स्वामी है, विषयिनी के मुख जोये। काल बली ते सब जग काप्यौं, ब्रह्मादिक हूँ रोऐ। सूर अधम की कहौ कौन गति, उदर भरै परि सोऐ। 6 सूर के अनुसार मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, छल, कपट, दम्भ इत्यादि कार्यों में प्रवृत्त हो कर जो पाप कर्म करता है, इस पाप कर्म की उत्पत्ति मनुष्य के मन में माया के प्रभाव से ही होती है। माया से छुटकारा प्राप्त करने के लिए हरिकृपा जरूरी है। पतित से पतित व्यक्ति भी हरिकृपा से भव-पार हो सकता है। सूर ने स्वयं को ऐसा ही पतित, - -