________________ अधम, अभिमानी, कुटिल, खल, कामी स्वीकार करते हुए संसार के बन्धन से मुक्ति को प्रार्थना करते हैं। इसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि पापी व्यक्ति अपने पापों का प्रायश्चित्त करके तथा भगवान् का नाम स्मरण करके जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो सकता है। (क) मौं सम कौन कुटिल खल कामी तुम सो कहाँ छिपी करुनामय, सबके अंतरयामि। सूरदास प्रभु अधम उधारन सुनिये श्रीपति स्वामी।२७ (ख) अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल काम क्रोध की पहरि चोलना कंठ विषयन माल। महा मोह के नूपुर बाजत निंदा शब्द रसाल। सूरदास की सबै अविद्या दूरि करो नंदलाल।१८ संक्षेप में सूर ने नाना प्रकार के पाप-कर्मों को त्याग कर भगवद् भक्ति करने पर बल दिया है। सूर की भाँति जिनसेन स्वामी ने भी पाप-पुण्य तत्त्व का विवेचन किया है। परन्तु उनका यह वर्णन जैनदर्शनानुसार है। जैन धर्म में कर्म पर सर्वाधिक बल दिया गया है। कर्म बन्ध दो प्रकार के होते हैं (1) पुण्य बन्ध तथा (2) पाप बन्ध। - इसमें शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र और सद्वैद्य ये चार पुण्य बन्ध के भेद होते हैं तथा कर्म बन्ध पाप है। शुभायुर्नामगोत्राणि सद्वेद्यं च चतुर्विधः। . पुण्यबन्धोऽन्यकर्माणि पापबन्धः प्रपंचितः॥१२ पुण्य कर्म अनेक कल्याण की प्राप्ति कराने वाले होने से सुखों का कारण है तथा पाप कर्म संसार में दुःखों का कारण माना जाता है। पुण्य कर्म सुख तो प्रदान करता है परन्तु वह भी अशुभ कर्म की तरह जीव को बाँधते हैं। क्योंकि पाप-पुण्य दोनों ही बंध है। पाप की तरह पुण्य भी हेय है। अशुभोपयोग की तरह शुभोपयोग भी हेय है। एकमात्र मोक्ष सुख और उसका कारण शुद्धोपयोग ही उपादेय है। पुण्यास्रवं सुखानां हि हेतुरभ्युदयावहः।। हेतुः संसारदुःखानामपुण्यास्रव इष्यते॥१०० अशुभ कर्मों के कारण अर्थात् पाप के कारण अनेक प्राणी क्लेश को भोगते हुए चौरासी लाख योनियों में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं परन्तु पुण्य कर्मों से उन्हें त्रसपर्याय की प्राप्ति होती है। संसार में त्रिवर्ग की प्राप्ति धर्म से होती है। शुभ वृत्ति से युक्त मन,