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________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषों में श्री कृष्ण की गणना नवम वासुदेव के रूप में होती है। उनका प्रतिद्वन्दी नवम प्रतिवासुदेव है। हरिवंशपुराण में जिनसेन स्वामी ने इसी मान्यता के आधार पर कृष्ण-चरित्र को चित्रित किया है। उन्होंने कृष्ण को भगवान् का अवतार नं. मानकर अर्द्ध चक्रवर्ती, अर्द्ध भरत-खण्ड के स्वामी तथा त्रिखण्डाधिपति के रूप में स्वीकार किया है। जैन धर्म में ईश्वर संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रखते। न तो सृष्टि के संचालन में उनका हाथ है तथा न ही वे किसी का भला-बुरा करते हैं। न भगवान् अवतार धारण करते हैं तथा न ही किसी पर प्रसन्न होते हैं। इस मतानुसार ही श्री कृष्ण भगवान् का अवतार न होकर एक महापुरुष हैं-नौवें नारायण हैं। नवमी वासुदेवोऽयमिति देवा जगुस्तदा।११ इस प्रकार हरिवंशपुराण में जो परमात्मा की कल्पना एवं विवेचना की गई है, वह सूरसागर की मान्यता से सर्वथा भिन्न है। वैदिक संस्कृति में जिस अवतारवाद को महत्त्व प्रदान किया है, उसे जैन-संस्कृति ने नहीं माना है। इतर संस्कृतियों के समान जैन संस्कृति इस महान् सृष्टि को ईश्वर निर्मित न मानकर स्व-निर्मित मानती है। ईश्वर जगत के कर्ता, संरक्षक तथा विनाशक नहीं है तथा न ही वे असुरों का संहार करने के लिए अवतरित होते हैं। . सूरसागर में कृष्ण का भागवत के आधार पर विष्णु का अवतार सिद्ध किया गया है परन्तु हरिवंशपुराण में उन्हें जैनमतानुसार श्रेष्ठ मानव रूप में चित्रित किया है। वैसे हरिवंशपुराण में भी श्री कृष्ण की अनेक अलौकिक शक्तियों का वर्णन मिलता है, जो महापुरुषों के पास भी दुर्लभ होती है. परन्तु उनकी यह भौतिक लीला वीर पुरुषों तक ही सीमित है। त्रिषष्टि शलाकापुरुषों में कृष्ण को सम्मिलित कर हरिवंशपुराणकार ने उन्हें भगवत्कोटि माना है, न कि स्वयं भगवान्। पुण्य-पाप तत्त्व : दार्शनिक जगत में कर्म की गति विचित्र मानी जाती है। कर्म के दो रूप हैं(१) पुण्य (2) पाप। मनुष्य अपने किये गये कर्मों का फल निश्चित भोगता है। पुण्य कर्मों से सुख की प्राप्ति होती है तो पाप कर्मों से दु:ख की। जीव इसी सुख-दुख रूपी कर्मों के फल भोग के लिये जन्म-धारण करता है। संसार के समस्त प्राणी पाप-पुण्य कर्मों में संलग्न रहते हैं। वैदिक काल से कर्म के बारे में भारतीय ऋषियों ने कहा है कि-संसार में कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा रखनी चाहिए। मानव तो क्या देवता भी अपने पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार बन्धन में पड़ते हैं। कहने का अर्थ यह है %
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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