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________________ भावाभावाद्वयाद्वैतभावबद्धा जगत्स्थितिः। अहेतुर्दृश्यते तस्यामनाद्या पारिणामिकी॥१ जहाँ सूरसागर में आत्मा को ईश्वर के हाथों की कठपुतली माना गया है। उसमें स्वयं कोई कार्य करने की क्षमता नहीं है, स्वर्ग-नरक में भेजने वाला, सुख-दु:ख देने वाला ईश्वर है। ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग या नरक में जाता है, वहाँ हरिवंशपुराण में इस सिद्धान्त का सर्वथा खण्डन मिलता है। उसमें कहा है कि ईश्वर किसी का उत्थान या पतन करने वाला नहीं, वह तो वीतरागी है। आत्मा ही स्वयं का उत्थान और पतन करती है। समीक्षा :(1) सूरदास ब्रह्म का जगत्कत्ता व सर्वशक्तिमान स्वरूप में स्वीकार करते हैं, जबकि आचार्य जिनसेन ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। (2) सूरदास के अनुसार ब्रह्म अपनी लीला रमण की इच्छा से सृष्टि का निर्माण करते हं परन्तु जिनसेन स्वामी के अनुसार सृष्टि अनादि है, स्वयंसिद्ध है। (3) सूरदास के मतानुसार ब्रह्म ज्ञानियों की साधना का विषय है। उसका अनुकम्पा से ही "मोक्ष" की प्राप्ति हो सकती है, पर जिनसेन स्वामी के अनुसार आत्मा की परिशुद्धि से ही मुक्ति सम्भव है। (4) सूरदास कर्मफल का नियन्ता, ईश्वर को मानते हैं जो व्यक्ति के कर्मों का नियमन करता है परन्तु हरिवंशपुराणकार कर्मों के नियमन के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानते हैं क्योंकि कर्म तो एक स्वतंत्र क्रिया है। जिसका फल भोगने में न तो बिशेष शक्ति व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा देती है और न ही उसके संकेतों पर व्यक्ति कर्म करता है। (5) सूरसागर में जहाँ श्री कृष्ण को परब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है, वहाँ हरिवंशपुराण में उन्हें मात्र शलाकापुरुष माना है। सूरसागर में हरिवंशपुराण की अपेक्षा "ब्रह्म" विषयक विशद व्याख्या मिलती है, क्योंकि उनके कृष्ण ही सृष्टि के कर्ता हैं परन्तु हरिवंशपुराण में "अनीश्वरवाद" का प्रतिपादन होने के कारण यह वर्णन संक्षेप में ही हुआ है। अवतारवाद :... सूरसागर में जो श्री कृष्ण-चरित्र वर्णित हुआ है, उसकी एक विशेषता यह है कि कृष्ण स्वयं मानव नहीं वरन् देवाधिदेव भगवान् हैं और वे इस पृथ्वी पर मानव के रूप में अवतरित हुए हैं। गीता में भी यही कहा गया है कि "जब जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, अधर्म का बोलबाला हो जाता है, उस समय परमात्मा अवतार धारण कर धर्म की रक्षा करते हैं।१८२
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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