________________ लीलाएँ कीं। वे आत्माराम तथा योगेश्वर हैं। प्रकृति, पुरुष, नारायण आदि सभी इन्हीं के अंश हैं। वे पूर्णावतार निर्गुणावस्था "अच्युत" अविनाशी एवं परमानन्द-सुखराशी हैं। हरिवंशपुराण में ब्रह्म : जैन-दर्शन में ब्रह्म की अवधारणा वैष्णव दर्शन से भिन्न दृष्टिकोण युक्त वर्णित है। हरिवंशपुराण ने भी ब्रह्म का विवेचन अपनी पूर्ण परम्परा के अनुसार किया है। जैनधर्मानुसार सृष्टि अनादि है, उसका न तो कोई रचयिता है तथा न ही पालनकर्ता। यह सृष्टि अनादिकाल से इसी प्रकार चल रही है और चलती रहेगी। ब्रह्म या ईश्वर न तो जगतकर्ता है एवं न ही फलदाता। कोई भी आत्मा भगवान् बनने की क्षमता रखती है। भगवान् अनन्त हैं, वे संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रखते हैं। सृष्टि के संचालन में न उनका हाथ है और न ही वे किसी का भला-बुरा करते हैं। वे न तो किसी की स्तुति से प्रसन्न होते हैं एवं न ही किसी के निन्दा से अप्रसन्न / जैन-दर्शन के अनुसार सृष्टि स्वयं सिद्ध है। सूर ने कुछ भारतीय दार्शनिकों की तरह ईश्वर की अलग सत्ता स्वीकार कर उसे सर्वशक्तिमान, व्यापक एवं विश्वसर्जक माना है परन्तु जिनसेन स्वामी ने जैनमतानुसार ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं किया है। न्याय-दर्शन की भाँति वे कर्मफल नियन्ता ईश्वर को नहीं मानते हैं। कर्मफल के नियमन के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कर्म परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होते हैं।७९ जैन मत के अनुसार ईश्वर कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। उनका कहना है कि जब मनुष्य पुण्य-कर्मों के प्रभाव से देवत्व को प्राप्त होता जाता है, तब वह ईश्वर कहलाता है। उसे ही जैन-दर्शन में अहँत, जिन या "सर्वज्ञ" कहते हैं। इस प्रकार जैन धर्म में अहंत या जिन तीर्थंकरों को ईश्वर माना जाता हैं। यही कारण है कि जैन लोग तीर्थंकरों की ही पूजा करते हैं। "जीव" अपने कर्मों के अनुसार स्वयं अपने सुख-दुख प्राप्त करते हैं, ऐसी अवस्था में मुक्तात्माओं तथा अर्हतों को इन झंझटों में पड़ने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि वे कृत-कृत्य हो चुके होते हैं। उन्हें अब कुछ करना बाकी नहीं रहा है परन्तु इन अहँतों या मुक्तात्माओं का उस ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे अन्य दर्शनों * में संसार के कर्ता-हर्ता ईश्वर की कल्पना की गई है। इसलिए जैन धर्म को अनीश्वरवादी भी कहा जाता है। जिनसेनाचार्य के मतानुसार इस सृष्टि का निर्माण कर्ता ईश्वर नहीं है। वरन् सृष्टि की यह स्थिति, भाव-अभाव के अद्वैत-भाव से बँधी हुई है। अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से भाव रूप और पर्यायार्थिक नय से अभाव रूप है, अहेतुक है। यह किसी कारण से उत्पन्न नहीं है वरन् अनादि है और पारिणामिक है, स्वयं सिद्ध है.।