________________ जैन दर्शन के मोक्ष-मार्ग के त्रिरत्नों को वैदिक परम्परा में श्रद्धा या भक्ति, ज्ञान तथा कर्म के नाम से स्वीकार किया गया है। मनुस्मृति में यही धर्म प्रतिपादित करने की प्रतिज्ञा की गई है जिसका सेवन एवं अनुपालन सच्चे सम्यग्दृष्टि वाले विद्वान् ज्ञानी रागद्वेष रहित सच्चे चरित्रवान महापुरुषों ने किया है।६५ श्रीमद्भागवत गीता में भी स्वीकार किया गया है कि श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त करता है एवं तत्पश्चात् ही वह संयमी बनता है।६६ / / मोक्ष के महत्त्व को निरूपित करते हुए पुराणकार लिखते हैं कि जीवन का अन्तिम ध्येय काम अर्थात् सांसारिक सुख न होकर मोक्ष है। क्योंकि सांसारिक सुख अल्पकालीन हैं, इससे व्यक्ति की लालसाएँ बढ़ती ही जाती हैं / व्यक्ति की ये अंभिलाषाएँ इतनी बड़ी हैं कि इसमें समस्त संसार की सम्पदा भी नहीं के बराबर है। अतः ये वासनाएँ सर्वथा व्यर्थ हैं। अतः व्यक्ति को अर्थ संचय रूपी प्रवृत्ति-परायणता से हटकर धर्मसाधन रूप विरक्ति-परायणता का अभ्यास करना चाहिए, जिसके द्वारा सांसारिक तृष्णा से मुक्तिरूपी आत्माधीन मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। इसके उपरान्त जिनसेन स्वामी ने मोक्ष प्राप्ति हेतु पाँच पाणे से विरक्ति पर भी अत्यधिक बल दिया है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा अपरिग्रह—इन पांच पापों से विरक्त होना भी व्रत है, जिसे अपनाना परम आवश्यक है। यह व्रत भी दो प्रकार का कहा गया है(१) अणुव्रत :-उक्त पापों से एकदेश से विरत होना। ' (2) महाव्रत :-उक्त पापों से सर्वदेश से विरत होना।६७ इस अणुव्रत से युक्त मनुष्यों को अपने व्रत को स्थिर रखने के लिए पाँच-पाँच भावनाओं को अपनाना पड़ता है। (1) अहिंसाव्रत :- सम्यक् वचन गुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, गवषणा के साथ भोजन ग्रहण करना, इर्यासमिति तथा आदान निक्षेपण। (2) सत्यव्रत :- क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य का त्याग करना तथा प्रशस्त वचन बोलना। (3) अचौर्यव्रत :- शून्यागतारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण-भैक्ष्य शुद्धि तथा सधर्मविसंवाद। (4) ब्रह्मचर्य वत :- स्त्री-राग कथा-श्रवण त्याग, उसके मनोहर अंगों को देखने का त्याग, शरीर की सजावट का त्याग, गरिष्टरस त्याग तथा पूर्वकाल में भोगे गये रति के स्मरण का त्याग। (5) अपरिग्रहव्रत :- पंच इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों में यथायोग्य राग द्वेष का त्याग 68