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________________ वंशीवट वृन्दावन जमुना, तजि वैकुंठ न जावें। सूरदास हरिको सुमरिन करि, बहुरि न भव जल आवें॥१ श्री कृष्ण का नाम स्मरण ही मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र सहज एवं सरलतम साधन है। इससे भक्त के नेत्र, श्रवण, बुद्धि, चित्त सभी श्री कृष्ण में लीन हो जाते हैं तथा वह आत्म-विस्मृति की स्थिति में भगवान् में लीन हो जाता है। तदुपरान्त वह भक्त व भगवान् जल-तरंग की भाँति अभिन्न होकर परमोच्च-अवस्था को प्राप्त करता है। इस प्रकार आचार्य वल्लभ के दर्शनानुसार सूर ने मुक्ति का वर्णन किया है। यह वर्णन दर्शन शास्त्र में वर्णित मुक्ति की अवधारणा से भी भिन्न हो गया है। वहाँ तो मुक्ति से अभिप्राय आवागमन के बन्धन से छूटकर ब्रह्मानंद में लीन होने से है। देह में रहते हुए मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। इस मुक्ति को प्राप्त करने के लिए ज्ञान की परमावश्यकता है। ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः / परन्तु सूर दर्शन में मुक्ति की प्राप्ति हेतु प्रेमतत्त्व ही सर्वोपरि हैं / परम्परागत मुक्ति की अवधारणा से नितान्त भिन्न उन्होंने भावात्मक मुक्ति का सुन्दर चित्रण खींचा है। वैसे सूर ने योग द्वारा व ज्ञान द्वारा प्राप्त सायुज्य-मुक्ति का वर्णन किया है परन्तु उसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया है जबकि शंकराचार्य इसी मुक्ति को उत्तमोत्तम मुक्ति कहते हैं। ... जिनसेन स्वामी ने हरिवंशपुराण में जैन-दर्शनानुसार मोक्ष प्राप्ति का विस्तृत वर्णन किया है परन्तु वह वर्णन सूर से भिन्न संदर्भो में वर्णित है। उनके अनुसार भी मोक्ष प्राप्ति ही जीव का अंतिम लक्ष्य है, पर उसे प्राप्त करने का रास्ता अलग है। जैन-दर्शन में बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष कहा है।६२ ___ सब कर्मों का आत्यन्तिक अभाव करने के लिए बन्ध के हेतुओं का अभाव तथा निर्जरा होना अत्यावश्यक है। जब समस्त कर्मों का नाश हो जाता है, आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है और लोक के अग्रभाव में स्थित हो जाती है। इस प्रकार एक बार कर्म क्षय होने पर पुनः कर्म बन्धन अथवा संसार चक्र में नहीं आना पड़ता, यही मोक्ष है। जिस प्रकार बीज सर्वथा जल जाने पर उसमें से अंकुर उत्पन्न नहीं होता, ठीक उसी प्रकार कर्मरूपी बीज सर्वथा जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता। . - बन्धहेतोरभावाद्धि निर्जरातश्च कर्मणाम्। कार्येन विप्रमोक्षस्तु मोक्षो निर्ग्रन्थरूपिणः॥६३ . मोक्ष की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र का सहारा लेना पड़ता है। हरिवंशपुराण में इसी को मोक्ष का एकमात्र साधन माना है। संक्षेप में सच्चे देव, शास्त्र, गुरु तथा अजीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित तत्त्वों को जानना सम्यग्ज्ञान है तथा अशुभ कर्मों से छूटकर शुभ में प्रवृत्त होना सम्यग्चारित्र है। 225
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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