________________ इसके अलावा पुराणकार ने इन व्रतों की स्थिरता एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए चार भावनाओं को ग्रहण करने पर भी जोर दिया है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ ये भावनाएँ मानी जाती हैं मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यं च यथाक्रमम्। सत्वे गुणाधिके क्लिष्टे ह्यविनेये च भाष्यते॥६९ किसी जीव को दुःख न हो ऐसा विचार करना मैत्री भावना है। अपने से अधिक गुणी मनुष्यों को देखकर हर्ष प्रकट करना गुणी भावना है। दु:खी व्यक्ति को देखकर अपने मन में दया भाव प्रकट करना करुणा भावना है एवं अविनेयमिथ्यादृष्टि जीवों में मध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ्य भावना है। ___पाँच महाव्रतों एवं चार भावनाओं के अतिरिक्त हरिवंशपुराण में तीन गुण व्रत तथा चार शिक्षाव्रतों को भी मोक्ष प्राप्ति हेतु आवश्यक माना है / इन गुणों की पहचान व इनके नाना अतिचारों पर भी विस्तृत निरूपण मिलता है। तदुपरान्त सात तत्त्वों का भी ज्ञान होना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है, जिनका वर्णन हमने यथा प्रसंग किया है। इस प्रकार सूरसागर तथा हरिवंशपुराण दोनों ग्रन्थों में मोक्ष या मुक्ति पर सविस्तार निरूपण मिलता है। सूर का मोक्ष का मार्ग वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत पर आधारित है जबकि जिनसेनाचार्य का दिगम्बर जैन दर्शनानुसार। सूरसागर में प्रेमाभक्ति को अपनाकर मोक्ष प्राप्ति पर बल दिया है जबकि हरिवंशपुराण में "त्रिरत्न" के सहारे। सूर के अनुसार भगवान् की अनुकम्पा से मुक्ति मिल सकती है जबकि जिनसेन स्वामी के मतानुसार पुण्य-कर्मों के आधार पर। सूरसागर में भगवन्नाम कीर्तन की बात कही गई है, जबकि * हरिवंशपुराण में पंचमहाव्रतों की। इतना विभेद होने पर भी दोनों कवि मोक्ष को जीवन का चरम-लक्ष्य मानते हैं तथा उसे प्राप्त करने का मार्ग, जनकल्याणार्थ विश्लेषित करते हैं। दर्शन के अन्य तत्त्वों की भाँति मोक्ष तत्त्व पर भी हरिवंशपुराण में विशद तात्त्विक विवेचन मिलता है, जो सूरसागर से अपेक्षाकृत विस्तृत है। ब्रह्म : __सूरसागर में कृष्ण को ब्रह्म रूप में स्वीकार किया गया है। उनमें ही निर्गुण ब्रह्म का समावेश मिलता है। उनके ये ब्रह्म भक्त-वत्सल हैं, जो भक्तों के कष्टों को अपनी लीला द्वारा हरने वाले हैं। ये ही ब्रह्म अपनी रमण करने इच्छा से चराचर जगत का निर्माण करते हैं तीन लोक हरि करि विस्तार। अपनी जोति कियो उजियार। जैसे कोऊ गेह संनारि। दीपक बारि करै उजियार॥७०