________________ पाँच पाप तथा चार कषाय मनुष्य को घेरे रहते हैं, जब तक उनका नाश नहीं होता तब तक व्यक्ति मोक्ष-मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकता एवं संसार चक्र के जन्म-मरण से नहीं छूटता। जीव को बन्धन से छूटने के लिए, आस्रव तत्त्व तथा बन्ध तत्त्व पर विशेष बल दिया गया है। इसी आस्रव तत्त्व तथा बन्ध तत्त्व पर पुराणकार जिनसेन स्वामी ने विशद व्याख्या की है। आस्त्रव तत्त्व : बन्ध के कारणों को आस्रव तत्त्व कहते हैं। काय, वचन और मन की क्रिया योग है। वही योग आस्रव है। अर्थात् जिन कारणों से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध होता है—वे कारण आस्रव कहलाते हैं। जिन व्यापारों से, जिन प्रवृत्तियों से कर्म पुद्गल होकर आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं, वे प्रवृत्तियाँ ही आस्रव कहलाती हैं। मन, वचन, काय के व्यापार के अनुसार शुभ, अशुभ कर्म का बन्ध होता है। 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य।' जिनसेनाचार्य के अनुसार आस्रव के शुभ तथा अशुभ के भेद से दो होते हैं। कायवाङ्मनसां कर्मयोगः स पुनरात्रवः। शुभः पुण्यस्य गण्यस्य पापस्याशुभलक्षणः॥१८ आस्रव के दो स्वामी हैं–१. सकषाय और अकषाय / इसी प्रकार से आस्रव के दो भेद हैं-साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव। संसार के बन्धन का कारण ही आस्रव है जिससे जीव अपने आस्रव स्वरूप को भुलाकर शरीरादि पर-द्रव्य में आत्म बुद्धि करता है तथा समस्त क्रियायें शारीराश्रित व्यवहारों में संलग्न रहती हैं। मिथ्याचरण से संसार. में घूमता है। सांसारिक विषय भोगों में लिप्त होकर प्रसन्न रहता है तथा सन्मार्ग को भूलकर भय, स्वार्थ, घृणा, परनिन्दा, हिंसा, आत्मवंचना ही उसका कार्य रह जाता है। आस्रव के कारणों में क्रोध, मान, माया और लोभ माना जाता है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद तथा नपुसंक वेद, ये नव-नौ कषाय हैं। जिनसे आत्मा कर्मों के बन्धन में जकड़ती चली जाती है। हरिवंशपुराण में आस्रव तत्त्व वर्णन में पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, हिंसा आदि पाँच अव्रत तथा पच्चीस क्रियाओं को आस्रव के द्वार बतलाये हैं। . इन्द्रियाणि कषायाश्च हिंसादीन्यव्रतान्यपि। साम्परायिककर्मणः स्याक्रिया पञ्चविंशतिः॥५० - इन प्रत्येक द्वार के ऊपर पुराणकार ने विशद व्याख्या की है। जिस प्रकार किसी जलयान में छिद्रों के होने से उसमें जल भर जाता है तथा छिद्र बन्द करने पर उसमें पानी आना बन्द हो जाता है, ठीक उसी प्रकार मन, वचन और काय रूपी आस्रव द्वारों से कर्म द्रव्य आकृष्ट होकर आत्मा में प्रविष्ट होता है परन्तु इन आस्रव द्वारों को बन्द कर दिया जाए तो आत्मा शुद्ध, सर्वज्ञ, चिदानन्द, सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाती है। 1 ह। 221