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________________ बन्धतत्त्व : बन्ध का कारण आस्रव है परन्तु बन्ध क्या है? यह समझना भी आवश्यक है। जिनसेनाचार्य के अनुसार कषाय से कलुषित जीव, प्रत्येक क्षण कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही बन्ध कहलाता है।५१ कर्म का आत्मा के साथ दूध और पानी की भाँति सम्बन्ध होने का नाम बन्ध है।५२ मोह राग से द्वेष भावों का निमित्त पाकर कर्माणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ दूध-पानी की तरह एकमेक हो जाना बन्ध है, जो दो प्रकार का होता है-भावबन्ध तथा द्रव्यबन्ध। आत्मा के जिन शुभाशुभ विकारी भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध होता है, उन भावों को भावबन्ध कहते हैं तथा ज्ञानावरण आदि कर्मों का बन्ध होना द्रव्य बन्ध है।५३ / / ___ आचार्य जिनसेन ने जैन दर्शनानुसार बन्ध के चार भेदों का सविस्तार वर्णन किया. है। बन्ध के भेदों का वर्णन करते हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश के गुण धर्मों को भी निरूपित किया है। प्रकृति का अर्थ स्वभाव से होता है जिस प्रकार नीम आदि की प्रकृति नियतरूप से स्थित है। जैसे कर्म की प्रकृति भवधारणा करना है। नाम कर्म की प्रकृति जीव में देव-नारकी आदि संज्ञाएँ उत्पन्न करना है। कर्मों में जितने काल तक. जीव के साथ रहने की शक्ति उत्पन्न होती है, उसे कर्म-स्थिति कहते हैं। उनकी तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति का नाम अनुभाग है एवं आत्म-प्रदेशों के साथ कितने कर्म परमाणुओं का बन्ध हुआ, उसे प्रदेश बन्ध कहते हैं। प्रकृतिश्च स्थितिश्चापि स बन्धोऽनुभवस्ततः। प्रदेशबन्धभेदेन चातुर्विध्यं प्रपद्यते॥ . प्रकतिः प्रतिपन्ना त भवधारणमायुषः। ' देवनारकनामादिकरणं नाम कर्मणः॥ कर्मत्वपरिणत्यात्मपुद्गलस्कन्धसंहतेः। प्रदेशः परमाण्वात्मपरिच्छेदावधारणा॥५४ इस भाँति जिनसेन स्वामी के मतानुसार जीव माया के कारण इस संसार में भ्रमित न होकर उसके आस्रव तत्त्वों तथा बन्ध तत्त्वों के कारण ही मोक्ष मार्ग की ओर अभिमुख नहीं होता है। मिथ्यादर्शनादि से वह मोह में फँस जाता है जो उसके लिए दुःखदायी एवं प्रतिकूल सिद्ध होते हैं। सूरसागर में जिस पाप की उत्पत्ति के कारण, जन्म-मरण के बन्धन का मूलाधार, विभिन्न मिथ्या बन्धनों की कर्ता को माया कहा गया है एवं इसी माया के मोह जाल से छूटने हेतु भगवान् से प्रार्थना की गई है, उसे हरिवंशपुराण में स्वीकार नहीं किया गया
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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