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________________ ज्यौं केहरि प्रतिबिम्ब देखि के आपुन कूप मर्यो। जैसे गज लखि फटिक सिला में, दसननि जाइ अर्यो। मर्कट मूंठि-छांडि नहिं दीनी घर-घर द्वार फिर्यो। सूरदास नलिनी के सुवरा, कहि कौन पकर्यो।३२. सूरदास जी के अनुसार इन जीवों को सांसारिक दुःखों से एवं मायाजाल से मुक्ति प्राप्त करने हेतु भगवत् स्वरूप का ज्ञान अपेक्षित है। भगवत् स्वरूप का ज्ञान, भगवत् कृपा से ही संभव है। इस प्रकार महाकवि सूर ने शुद्धाद्वैत के अनुसार जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध अंशी व अंश का बताया है। वह भ्रम के कारण इन्द्रिय धर्म को आत्मा का धर्म मानने लगता है, जो राग-द्वेष का मूल-कारण है। आचार्य जिनसेन ने जैन दर्शनानुसार हरिवंशपुराण में जीव-तत्त्व की विशद चर्चा की है। जैनागमों में जो सात तत्त्व कहे गये हैं,३३ उनमें अजीव भी महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार जीव का लक्षण उपयोग है और वह उपयोग आठ प्रकार का है। इन भेदों में मति, श्रुति, अवधि ये तीन सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान दोनों रूपों में होते हैं / इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख और दुःख-ये चिदात्मक हैं, ये ही जीव के लक्षण हैं क्योंकि इनसे ही चैतन्य स्वरूप की जानकारी होती है। जीवस्य लक्षणं लक्ष्यमुपयोगोऽष्टधा स च। मतिश्रुतावधिज्ञानतद्विपर्ययपूर्वकः॥ इच्छा द्वेषः प्रयत्नश्च सुखं दुःखं चिदात्मकम्। आत्मनो लिंगमेतेन लिङ्ग्यते चेतनो यतः॥३४ उन्होंने पृथ्वी आदि भूतों की आकृति मात्र जीव को नहीं कहा है क्योंकि उनके अनुसार वे तो शरीर की अवस्थाएँ हैं। शरीर का चैतन्य के साथ अनेकान्त हैं अर्थात् शरीर यहीं रहता है और चैतन्य दूर हो जाता है। जिस प्रकार बालु इत्यादि से तैल की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, उसी प्रकार से पृथ्वी आदि चार भूतों में चैतन्य की उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। जीव तो संसार का अनादिधन है, कर्म के परवश बना यहाँ दूसरी गति में आता है एवं कर्म परवश बनकर वह दूसरी गति को जाता है! जीव स्वयं द्रव्य रूप है, ज्ञाता है, द्रष्टा है, कर्ता है, भोक्ता है, कर्मों का नाश करने वाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप है, सदा गुणों से रहित है, असंख्यात प्रदेशी है, संकोच विस्तार स्वरूप है और शरीर प्रमाण है तथा वर्णादि बीस गुणों से रहित है। द्रव्यभूतः स्वयं जीवो ज्ञाता द्रष्टास्ति कारकः। भोक्ता मोक्ता व्ययोत्पादयोधौव्यवान् गुणवान् सदा॥ असंख्यातप्रदेशात्मा ससंहारविसर्पणः। स्वशरीरप्रमाणस्तु मुक्तवर्णादिविंशतिः॥३५ -216
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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