________________ उन्होंने आत्मा के स्थान एवं उसके कार्य का निरूपण करते हुए. हरिवंशपुराण में लिखा है कि जिस प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ शरीर के किसी निश्चित स्थान में ही कार्य कर सकती है, उसी प्रकार स्पर्शन इन्द्रियाँ भी जहाँ आत्मा होगी वही कार्य कर सकती है, सर्वत्र नहीं अर्थात् आत्मा को शरीर के प्रमाण रूप में ही स्वीकार किया है। जीव को ढूंढने का मार्ग बताते हुए जिनसेनाचार्य ने उल्लेख किया है कि यह जीव गति, इन्द्रिय, छह काय, योग वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेष्या, दर्शनसंज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओं से खोजा जा सकता है। इस संसारी जीव को जानने के लिए प्रमाण, नय-निक्षेप, सत् संख्या और निर्देश आदि का सहारा लेना चाहिए एवं मुक्त जीव को जानने के लिए अनन्त ज्ञान आदि आत्मगुणों का अवलम्बन लेना चाहिए। इस प्रकार जीव के पुराणकार ने दो भेद किये हैं-(१) संसारी जीव एवं (2) मुक्त जीव। स गतीन्द्रियषट्काययोगवेदकषायतः। ज्ञानसंयमसम्यकत्वलेश्यादर्शनसंज्ञिभिः॥ भव्यत्वाारपर्यन्तमार्गणाभिः स मृग्यते। चतुर्दशभिराख्यातो गुणस्थानैश्च चेतनः॥ प्रमाणनयनिक्षेपसत्संख्यादिकिमादिभिः। संसारी प्रतिपत्तव्यो मुक्तोऽपि निजसद्गुणैः॥२६ जैन दर्शन में जीक को शरीर के अनुसार बदलाते स्वरूप में स्वीकार किया है। मन की प्रवृत्ति से जीव का परिणाम बदलता है। दर्शन और ज्ञान जीव का स्वभाव धर्म है, जिसे वह प्राप्त करता है। वह इन्द्रियों द्वारा और अतीन्द्रियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जो ज्ञान इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है, वह परोक्ष ज्ञान है तथा जिसे अतीन्द्रियों से प्राप्त किया जाता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। अजीव तत्त्व : ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित तथा आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्य अजीव है। परन्तु अजीव तत्त्वों का भी विशिष्ट रूप होता है। इसके पाँच भेद बताये गये हैं-पुद्गल, अधर्म, आकोश, धर्म और काल। धर्माधर्मी तथाकाशं पुद्गलः काल एव च।। __ पंचाप्यजीवतत्त्वानि सम्यग्दर्शनगोचराः॥३७ इस भेदों में पूर्व के चार को अस्तिकाय एवं काल को अनस्तिकाय कहा गया है। पुद्गल सृष्टि का रूपवान् स्वरूप है। इसका सूक्ष्मतम रूप परमाणु है, जो अत्यन्त लघु होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता। अनेक परमाणुओं के संयोग से परिणाम उत्पन्न होता है, जिससे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण ये चार गुण प्रकट होते हैं।