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________________ है तथा ब्रह्म में लीन हो जाता है। उसका देहाभिमान नष्ट हो जाता है, ब्रह्म के साथ उसका शाश्वत समबन्ध स्थापित हो जाता है।" जीव कर्म करि बहु तन पावै, अज्ञानी तिहि देखि भुलावै। ज्ञानी सदा एक रस जाने, तन के भेद-भेद नहिं माने। आत्म अजन्म सदा अविनासी, ताकों देह मोह पड़ फाँसी॥° शरीरस्थ आत्मा ही जीव है। जीव को जब अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तब सदा एक रस जाने अर्थात् सर्वत्र ही ब्रह्म को ही व्याप्त देखने लगता है। उसके अज्ञान का आवरण नष्ट हो जाता है तथा उसे अपनी आत्मा में अविनाशी अजन्म स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है। वल्लभ सम्प्रदाय की मान्यताओं के अनुसार जीवों को दो कोटियाँ होती हैं (1) दैवी (2) आसुरी। दैवी कोटि के जीवों को पुष्ट कहते हैं, जिनके दो भेद होते हैंमर्यादा पुष्ट और पुष्टि-पुष्ट। मर्यादापुष्ट :-ये वे जीव हैं जो शास्त्रोक्त विधि का अनुसरण करते हुए ईश्वर की उपासना करते हैं। इन जीवों को कर्म एवं ज्ञान के आधार पर मुक्ति मिलती है। पुष्टिपुष्ट :-ये वे जीव हैं जो ईश्वर के अनन्य प्रेमी होकर, उनकी शरण में जाते हैं। उनका अनुग्रह प्राप्त करने में वे सफल होते हैं। "पोषणं तदनुग्रहः" उक्ति के आधार पर वे सर्वोत्कृष्ट जीव होते हैं। इन जीवों का वर्णन सूर ने किया है: आनुपनौं आपुन ही मैं पायो। शब्दहि शब्द भयो उजियारो, सदगुरु भेद बतायौ।३१ आसुरी :-जो जीव माया के बन्धनों से आवृत्त होकर जन्म-मरण के चक्र में भ्रमित रहते हैं, वे आसुरी कोटि में कहे जाते हैं। इनके भी दो प्रकार हैंअज्ञ :-अज्ञ जीव वे होते हैं, जो घोर अनीति में लिप्त रहते हैं। इनका परमात्मा के हाथों संहार होता है। दर्श :-ये संसारी जीव संसार की माया से भ्रमित रहते हैं तथा विषयासक्ति को ही सर्वस्व मानते हैं। इन जीवों का वर्णन सूरसागर में मिलता है कि वे भ्रमित दशा में हैं इसलिए व्यर्थ प्रयत्नशील होते हुए उन्हें अविद्या से मुक्ति नहीं मिलती। अपुनपौ आपुन ही बिसरयौं। जैसे स्वान कांच-मंदिर मे, भ्रमि भ्रमि भूकि पर्यो। ज्यौं सोरभ मृग नाभि बसत है, द्रुम तृन सुंघि फिर्यो। -215
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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